________________ द्वादशांगी रूप मगिपिटक को नमस्कार किया है। अन्त में शान्तिकर श्रुतदेवता का स्मरण किया गया है / साथ ही कुम्भधर ब्रह्म शान्ति यक्ष "वैरोटया विद्यादेवी और अन्त हुण्डी" नामक देवी को स्मरण किया है। प्राचार्य अभयदेव का मन्तव्य है कि जितने भी नमस्कारपरक उल्लेख हैं, वे सभी लिपिकार और प्रतिलिपिकार द्वारा किये गये हैं। मूर्धन्य मनीषियों का मानना है कि नमोक्कार महामंत्र प्रथम बार इस अंग में लिपिबद्ध हुमा है। ___ यह आगम प्रश्नोत्तर शैली में प्राबद्ध है। गौतम की जिज्ञासाओं का श्रमण भगवान महावीर के द्वारा सटीक समाधान दिया गया है। इस अंग में दर्शन सम्बन्धी, प्राचार सम्बन्धी, लोक-परलोक सम्बन्धी प्रादि अनेक विषयों की चर्चाएं हुई हैं। प्रश्नोत्तरशैली शास्त्ररचना की प्राचीनतम शैली है। इस शैली के दर्शन वैदिक परम्परा के मान्य उपनिषद् ग्रन्थों में भी होते हैं। यह पागम ज्ञान का महासागर है। कुछ बातें ऐसी भी हैं जो सामान्य पाठकों की समझ में नहीं आतीं। उस सम्बन्ध में वत्तिकार प्राचार्य अभयदेव भी मौन रहे हैं। मनीषियों को उस पर चिन्तन करने की आवश्यकता है। व्याख्यासाहित्य भगवतीसूत्र मूल में ही इतना विस्तृत रहा कि इस पर मनीषी आचार्यों ने व्याख्याएँ कम लिखी हैं। इस पर न नियुक्ति लिखी गयी, न भाष्य लिखा गया और न विस्तार से चणि ही लिखी गयी / यो ए चूणि प्रस्तुत प्रागम पर है, पर वह भो अप्रकाशित है। उसके लेखक कौन रहे हैं, यह विज्ञों के लिए अन्वेषणीय है। सर्वप्रथम भगवतीसूत्र पर नवांगी टीकाकार आचार्य अभयदेव ने व्याख्याप्रज्ञप्तिवृत्ति के नाम से एक वृत्ति लिखी है जो वृत्ति मूलानुसारी है। यह वृत्ति बहुत ही संक्षिप्त और शब्दार्थ प्रधान है। इस वृत्ति में जहाँ-तहाँ अनेक उद्धरण दिये गये हैं। इन उद्धरणों से प्रागम के गम्भीर रहस्यों को समझने में सहायता प्राप्त होती है। आचार्य प्रभयदेव ने अपनी वत्ति में अनेक पाठान्तर भी दिये हैं और व्यास्याभेद भी दिये हैं, जो अपने आप में बड़े महत्त्वपूर्ण हैं। व्याख्या में सर्वप्रथम प्राचार्य ने जिनेश्वर किया है। उसके पश्चात् भगवान महावीर, गणधर सुधर्मा और अनुयोगवृद्धजनों को व सर्वज्ञप्रवचन को श्रद्धास्निग्ध शब्दों में नमस्कार किया है। उसके पश्चात प्राचार्य ने व्याख्याप्रज्ञप्ति को प्राचीन टीका और चूणि तथा जीवाजीवाभिगम आदि की वत्तियों को सहायता से प्रस्तुत प्रागम पर विवेचन करने का संकल्प किया है। पत्तिकार ने व्याख्याप्रज्ञप्ति के विविध दष्टियों से दस अर्थ भी बताये हैं, जो उनको प्रखर प्रतिभा के स्पष्ट परिचायक हैं। व्याख्या में यत्र-तत्र अर्थवैविध्य दृग्गोचर होता है। मनीषियों का यह मानना है कि आचार्य अभयदेव ने जो प्राचीन टीका का उल्लेख किया है वह टीका आचार्य शोलांक को होनी चाहिए, पर वह टीका याज अनुपलब्ध है। आचार्य अभय देव ने कहीं पर भी उस प्राचीन टोकाकार का नाम निर्देश नहीं किया है। अनुश्रुति है कि प्राचार्य शीलांक ने नौ अंगों पर टीका लिखी थी। वर्तमान में आचारांग और सुयगडांग पर ही उनकी टीकाएं प्राप्त हैं शेष सात आगमों पर नहीं। प्राचार्य शीलांक के अतिरिक्त अन्य किसी भी 1. नत्वा श्री वर्धमानाय श्रीमते च सुधम्र्मणे / सर्वानयोगवद्धेभ्यो वाण्यै सर्वविदस्तथा / / एतट्टीका चूर्णी जीवाभिगमादिवृत्तिलेशां च / संयोज्य पञ्चमाङ्ग विवृणोमि विशेषतः किञ्चित् / / -व्याख्याप्रज्ञप्ति टीका 2,3 [102] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org