________________ छठो उद्देसओ : 'अन्तर' छठा उद्देशक : 'अन्तर' प्रथम से सप्तम नरकपृथ्वी तक की दो-दो पृश्वियों के बीच में मरणसमुद्घात करके सौधर्मादिकल्प से ईषत्प्राग्भारापृथ्वी तक पृथ्वीकायिकरूप में उत्पन्न होने योग्य पृथ्वीकायिक द्वारा पूर्व-पश्चात् अाहार-उत्पाद-निरूपण 1. पुढविकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए सक्करप्पभाए 4 पुढवीए अंतरा समोहए, समोहण्णित्ता जे भविए सोहम्मे कप्पे पुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए से णं भंते ! कि पुड़िय उववज्जित्ता पच्छा प्राहारेज्जा, पुब्धि आहारेता पच्छा उबवज्जेज्जा ? गोयमा ! पुग्वि वा उववज्जित्ता० एवं जहा सत्तरसमसए छठ्ठदेसे (स० 17 उ० 6 सु० 1) जाव से तेणठेणं गोयमा! एवं बच्चइ पुग्वि वा जाव उववज्जेज्जा, नवरं तहिं संपाउणणा, इमेहि माहारो भण्णइ, सेसं तं चेव / 1 प्र.] भगवन् ! जो पृथ्वीकायिक जीव, इस रत्नप्रभा पृथ्वी और शर्कराप्रभा पृथ्वी के बीच में मरणसमुद्घात करके सौधर्मकल्प में पृथ्वीकायिक के रूप में उत्पन्न होने योग्य हैं, वे पहले उत्पन्न होकर पीछे आहार करते हैं, अथवा पहले आहार करके पीछे उत्पन्न होते हैं? [1 उ.] गौतम ! वे पहले उत्पन्न होकर पीछे आहार करते हैं अथवा पहले आहार करके पीछे उत्पन्न होते हैं; इत्यादि वर्णन सत्तरहवें शतक के छठे उद्देशक के (सू. 1 के) अनुसार यावत्-हे गौतम ! इसलिए ऐसा कहा जाता है कि यावत् पीछे उत्पन्न होते हैं; (यहाँ तक कहना चाहिए।) विशेष यह है कि वहाँ पृथ्वीकायिक 'सम्प्राप्त करते हैं--पुद्गल-ग्रहण करते हैं-ऐसा कहा है, और यहाँ 'आहार करते हैं'--ऐसा कहना चाहिए। शेष सब पूर्ववत् / 2. पुढविकाइए णं भंते ! इमोसे रयणप्पभाए सक्करप्पभाए य पुढवीए अंतरा समोहए. जे भविए ईसाणे कप्पे पुढविकाइयत्ताए उववज्जित्तए० ? एवं चेव। [प्र.) भगवन् ! जो पृथ्वीकायिक जीव, इस रत्नप्रभा और शर्कराप्रभा पृथ्वी के मध्य में मरणसमुद्घात करके ईशानकल्प में पृथ्वीकायिकरूप से उत्पन्न होने योग्य हैं, वे पहले उत्पन्न हो कर पीछे आहार करते हैं या पहले आहार करके पीछे उत्पन्न होते हैं ? [2 उ.] गौतम ! (इसका उत्तर भी) पूर्ववत् (समझना चाहिए।) For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org