________________ बीसवां शतक : उद्देशक 5] 18. कालपरमाणू० पुच्छा। गोयमा ! चउविधे पन्नत्ते, तं जहा–अवणे अगंधे अरसे अफासे / [18 प्र.] भगवन् ! कालपरमाणु कितने प्रकार का कहा गया है ? [18 उ.] गौतम ! कालपरमाणु चार प्रकार का कहा गया है। यथा-अवर्ण, अगन्ध, अरस और अस्पर्श / 16. भावपरमाणु णं भंते ! कतिविधे पन्नत्ते ? गोयमा ! चउम्विधे पन्नते, तं जहा---वण्णमंते गंधमते रसमंते फासमंते / सेव भंते ! सेव भंते ! ति जाव विहरति / ॥वोसइमे सए : पंचमो उद्देसमो समत्तो॥ 20-5 // [16 प्र.] भगवन् ! भावपरमाणु कितने प्रकार का कहा गया है ? [19 उ.] गौतम ! वह चार प्रकार का कहा गया है / यथा-वर्णवान्, गन्धवान्, रसवान् और स्पर्शवान् / हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-परमाणु : द्रव्यादि की अपेक्षा से क्या है, क्या नहीं ?-प्रस्तुत पांच सूत्रों (15 से 19 सू. तक) में परमाणु के स्वरूप का द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से विश्लेषण किया गया है। द्रव्यपरमाण : स्वरूप-वर्णादिधर्म की विवक्षा किये बिना एक परमाणु को द्रव्यपरमाणु कहते हैं / क्योंकि यहाँ केवल द्रव्य की ही विवक्षा की गई है। अच्छेद्य-द्रव्यपरमाणु का शस्त्रादि द्वारा छेदन नहीं हो सकता, इसलिये वह अच्छेद्य है / अभेद्य उसका सूई आदि द्वारा भेदन नहीं हो सकता, इसलिये अभेद्य है / अदाह्य-वह अग्नि आदि से जलाया नहीं जा सकता, इसलिये अदाह्य है। अग्राह्य-उसे हाथ आदि से पकड़ा नहीं जा सकता, इसलिये अग्राह्य है / क्षेत्रपरमाणु : स्वरूप-एक प्राकाशप्रदेश को क्षेत्रपरमाणु कहते हैं। अनर्द्ध-परमाणु के सम-संख्यावाले अवयव नहीं होते, इसलिये वह अनर्द्ध कहलाता है / अमध्य-विषम संख्या वाले अवयव नहीं हैं, इसलिये अमध्य कहलाता है। अप्रदेश-~-इसके प्रदेश (अवयव) नहीं अप्रदेश है। अविभाज्य–परमाणु का विभाजन या विभाग नहीं हो सकता, इसलिए वह अविभाग या अविभाज्य है। कालपरमाणु : स्वरूप-एक समय को कालपरमाणु कहते हैं / इसलिये एक समय में उसके लिये वर्णादि की विवक्षा नहीं होती। ___ भावपरमाणु : स्वरूप-वर्णादिधर्म की प्रधानता की विवक्षापूर्वक परमाणु को भावपरमाणु कहते हैं। भावपरमाणु-वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श से युक्त होता है।' ॥वीसवां शतक : पंचम उद्देशक समाप्त // 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 788 . (ख) भगवती. विवेचन भा. 6 (पं. घेवरचन्दजी), पृ. 2887 लिए Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org