________________ 22] [ग्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन---द्विप्रदेशी स्कन्ध के बयालीस भंग---द्विप्रदेशी स्कन्ध के जब दोनों प्रदेश एक.वर्ण वाले होते हैं, तब असंयोगी 5 भंग होते हैं। जब दोनों प्रदेश भिन्न वर्ण वाले होते हैं, तब द्विकसंयोगी दस भंग होते हैं / इसी प्रकार जब दोनों प्रदेश एक गन्ध वाले होते हैं, तब असंयोगी दो भंग होते हैं और जब दोनों प्रदेश दो गन्ध वाले होते हैं, तब द्विकसंयोगी एक भंग होता है। इसी प्रकार जब दोनों प्रदेश एक रस वाले हों तो असंयोगी 5 भंग होते हैं और जब दोनों प्रदेश भिन्न-भिन्न दो रस वाले हों तब दस भंग होते हैं / इसी प्रकार स्पर्श के द्विकसंयोगी 4 भंग और त्रिसंयोगी 4 भंग तथा चतुःसंयोगी 1 भंग होता है / इस प्रकार द्विप्रदेशी स्कन्ध में वर्ग के 15, गन्ध के 3, रस के 15, और स्पर्श के 9, ये सब मिला कर 42 भंग होते हैं।' त्रिप्रदेशीस्कन्ध में वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श की प्ररूपरणा ___3. तिपएसिए णं भंते ! खंधे कतिवणे० ? जहा अट्ठारसमसए (स० 18 उ० 6 सु० 8) जाव चउफासे पन्नते / जति एगवण्णे-सिय कालए जाव सुक्किलए 5 / जति दुवणे-सिय कालए य नीलए य 1, सिय कालए य नीलगा य 2, सिय कालगा य नीलए य 3; सिय कालए य लोहियए य 1, सिय कालए य लोहियगा य 2, सिय कालगा य लोहियए य 3; एवं हालिइएण वि समं३; एवं सुक्किलएण वि समं 3, सिय नीलए य, लोयिहए य एत्थ वि भंगा 3, एवं हालिद्दएण वि भंगा 3, एवं सुक्किल एण वि समं भंगा 3; सिय लोयिहए य हालिद्दए य, भंगा 3; एवं सुक्किलएण वि समं 3; सिय हालिहए य सुक्किलए य भंगा 3 / एवं सम्वेते दस दुयासंजोगा भंगा तीसं भवंति / जति तिवण्णे-सिय कालए य नीलए य लोहियए य 1, सिय कालए य नीलए य हालिद्दए य 2, सिय कालए य नीलए य सुक्किलए य 3, सिय कालए य लोहियए य हालिद्दए य 4, सिय कालए य लोहियए य सुविकलए य 5, सिय कालए य हालिद्दए य सुक्किलए य 6, सिय नीलए य लोहियए य हालिहए य 7, सिय नीलए य लोहियए य मुक्किलए य 8, सिय नीलए य हालिद्दए य सुक्किलए य 6, सिय लोहियए य हालिद्दए य सुक्किलए य 10, एवं एए दस तिया संयोगे भंगा / जति एगगंधे--सिय सुम्भिगंधे 1, सिय दुब्भिगंधे 2; जति दुगंधे-- सिय सुभिगंधे य, दुन्भिगंधे य, भंगा 3 / रसा जहा वण्णा। जदि दुफासे--सिय सीए य निद्धे य / एवं जहेव दुपएसियस तहेव चत्तारि भंगा 4 / जति तिफासे-सव्ये सीए, देसे निद्ध, देसे लुक्खे 1; सव्वे सीए, देसे निद्ध, देसा लुक्खा 2; सम्वे सोते, देसा निद्धा, देसे लुक्खे 3; सव्वे उसिणे, देसे निद्ध, से लुक्खे, एत्थ वि भंगा तिनि 3; सम्वे निद्ध, देसे सोते, देसे उसिणे--भंगा तिनि 3; सब्वे लुक्खे, देसे सोए, देसे उसिणे--भंगा तिन्नि, [12] / जति चउफासे--देसे सीए, देसे उसिणे, देसे निबे, देसे लक्खे 1; देसे सीए, देसे उसिणे, देसे निद्ध, देसा लुक्खा 2, देसे सीए, वेसे उसिणे, देसा निद्धा, देसे लक्खे 3; देसे सोए, देसा उसिणा, देसे निद्ध, 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 782-783 (ख) भगवती. हिन्दी विवेचन (पं. घेरवचन्दजी), भा. 6, पृ. 2847-2848 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org