________________ वीसवां शतक : उद्देशक 2] 15 का आश्रयदाता होने से / अन्तरिक्ष-अन्तः-मध्य में जिसकी ईक्षा-दर्शन हो; वह अन्तरिक्ष / श्यामवर्ण होने से वह श्याम भी कहलाता है / जहाँ विशेषादिरूप (अवकाशरूप) अन्तर न हो; वह अवकाशान्तर है / गम-गमनक्रिया से रहित होने से वह प्रगम है। स्फटिक के समान स्वच्छ होने से स्फटिक भी कहलाता है / अनन्त-अन्त (सीमा) से रहित होने से अनन्त--जिसका अन्त न हो।' जीवास्तिकाय के पर्यायवाची शब्द 7. जीवस्थिकायस्स णं भंते ! केवतिया अभिवयणा० पुच्छा / गोयमा ! अणेगा अभिवयणा पन्नत्ता, तं जहा-जीवे ति बा, जीवस्थिकाये ति बा, पाणे ति वा, भूते ति वा, सत्ते ति वा, विष्णू ति वा, चेया ति वा, जेया ति वा, आया ति वा, रंगणे ति वा, हिंडुए ति वा, पोग्गले ति वा, माणवे ति वा, कत्ता ति वा, विकत्ता ति वा, जए ति वा, जंतू ति वा, जोणी ति बा, सयंभू ति वा, ससरीरी ति वा, नायये ति वा, अंतरप्पा ति वा, जे यावऽन्ने तहप्पगारा सम्वे ते जीवअभिवयणा। [7. प्र.] भगवन् ! जीवास्तिकाय के कितने अभिवचन कहे गए हैं ? [7. उ.] गौतम ! उसके अनेक अभिवचन कहे गए हैं। यथा-जीव, जीवास्तिकाय, या प्राण, भूत, सत्त्व, अथवा विज्ञ, चेता, जेता, आत्मा, रंगण, हिण्डुक, पुद्गल, मानव, कर्ता, विकर्ता, योनि, स्वयम्भू, सशरीरी, नायक, एवं अन्तरात्मा ये सब और इसके समान अन्य अनेक अभिवचन जीब के हैं। विवेचन--जीव के विविध अभिवचनों के व्युत्पत्यर्थ—जीव-जो प्राणधारण करता है-जीता है, आयुष्यकर्म और जीवत्व का अनुभव करता है, इसलिए वह जीव कहलाता है / वैसे प्राण, भूत, जीव और सत्त्व, ये जैनशास्त्रों में जीव के चार पारिभाषिक शब्द भी हैं। वहाँ द्वीद्रिय-त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय जीवों को 'प्राण' वनस्पतिकाय को 'भूत', पंचेन्द्रियप्राणियों को जीव और चार स्थावरजीवों को 'सत्व' कहते हैं / प्राणवायु को भीतर खींचने और बाहर छोड़ने (श्वासोच्छ्वास लेने) के कारण भी जीव को 'प्राण' कहते हैं / जीव शुभाशुभ कर्मों के साथ सम्बद्ध है, अच्छे-बुरे कार्य करने में समर्थ है, अथवा सत्ता वाला है, इसलिए इसे शक्त, सक्त या सत्व कहते हैं / कड़वे, कसैले, खट्टे-मीठे आदि रसों को जानता है, इसलिए इसे विज्ञ कहते हैं / सुख-दुःख का वेदन करता है, इसलिए 'वेद' कहते हैं / चेता-पुद्गलों का चयनकर्ता होने से चेता है। जेता-कर्मरिपुओं का विजेता होने से / प्रात्मानाना गतियों में सतत अतन-गमन (परिभ्रमण) करता है / रंगण-रागयुक्त है / नाना गतियों में हिण्डन-भ्रमण करता है, इसलिए इसे 'हिण्डक' कहते हैं। पुदगल--शरीरों के पुरण-गलन होने से पुद्गल है / मा+नव—जो नवीन न हो, अनादि (प्राचीन) हो, वह मानव है / कर्ता-कर्मों का कर्ता। विकर्ता-विविधरूप से कर्मों का कर्ता-विकर्ता अथवा विच्छदेक / जगत्-अतिशयगमनशील (विविधगतियों में) होने से / जन्तु-जो जन्म ग्रहण करता है / योनि-दूसरों को उत्पन्न करने वाला। स्वयंम्भू-स्वयं (अपने कर्मों के फलस्वरूप) होने वाला / सशरीरी शरीरयुक्त होने के कारण जगत्, 1. भगवती. प्र. वृत्ति, पत्र 776 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org