________________ बीसवां शतक : उद्देशक 2] [13 [4 उ.] गौतम ! इसके अनेक अभिवचन (पर्यायवाची शब्द) कहे गए हैं / यथा--धर्म, धर्मास्तिकाय, प्राणातिपातविरमण, मृषावादविरमण, यावत् परिग्रहविरमण, अथवा क्रोध-विवेक, यावत्-मिथ्यादर्शन-शल्य-विवेक, अथवा ईर्यासमिति, भाषासमिति, एषणासमिति, प्रादानभाण्डमात्रनिक्षेपणासमिति, उच्चार-प्रस्रवणखेलजल्लसिंघाणपरिष्ठपनिकासमिति, अथवा मनोगुप्ति, वचनगुप्ति या कायगुप्ति; ये सब तथा इनके समान जितने भी दूसरे इस प्रकार के शब्द हैं, वे धर्मास्तिकाय के अभिवचन हैं। विवेचन अभिवचन अर्थात पर्यायवाची शब्द / धर्मास्तिकाय के ये पर्यायवाची शब्द : क्यों और कैसे ? धर्मास्तिकाय के पर्यायवाची मुख्यतया दो शब्द हैं--(१) धर्म और (2) धर्मास्तिकाय / धर्मशब्द भी इन दोनों अर्थों का अभिधायक इस प्रकार है-(१) जो उत्तम सुख (मोक्ष) में धरता-रखता है, अथवा दुर्गति में गिरते हुए आत्मा को धारण करके सुगति में रखता है, वह धर्म है / वह सामान्यधर्म और विशेषधर्म के रूप में दो प्रकार का है। यह धर्म शब्द सामान्यधर्मप्रतिपादक है / श्रुत-चारित्रधर्म विशेषधर्म-प्रतिपादक है। इसी प्रकार प्राणातिपातविरमण आदि से कायप्ति तक जितने भी शब्द हैं अथवा और भी इस प्रकार के चारित्रधर्म से सम्बन्धित जो शब्द है, वे सब चारित्रधर्म के अन्तर्गत विशेषधर्म के प्रतिपादक हैं। (2) धर्मास्तिकाय द्रव्य भी धर्म का पर्यायवाची शब्द है / इसका व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है--जो जीव और पुदगलों की गति और पर्याय को धारण करता है, वह धर्म का दूसरा नाम धमोस्तिकाय है, जिसका निवेचन इस प्रकार है-धर्मरूप अस्तिकाय अर्थात प्रदेशराशि-धर्मास्तिकाय है। प्राशय यह है कि धर्म शब्द के साधार्य से अस्तिकायरूप धर्म के प्राणातिपात-विरमणादि चारित्रधर्म भी पर्यायवाची है।' जे यावन्न तहप्पगारा का आशय ये और अन्य भी तथाप्रकार के जो चारित्रधर्माभिधायक सामान्य-विशेषधर्मप्रतिपादक शब्द हैं, वे सब धर्मास्तिकाय के पर्यायवाची शब्द हैं / 2 अधर्मास्तिकाय के पर्यायवाची शब्द 5. अधम्मस्थिकायस्स णं भंते ! केवइया अभिवयणा पन्नत्ता? गोयमा ! अणेगा अभिवयमा पन्नत्ता, तं जहा--अधम्मे ति वा, अधम्मस्थिकाये ति वा, पाणातिवाए ति बा जाव मिच्छादसणसल्ले ति वा, इरियाअस्समिती ति वा जाव उच्चार-पासवण जाव पारिद्वावणियाअस्समिती ति वा, मणअगुत्ती ति वा, वइअगुत्ती ति वा, कायप्रगुत्ती ति वा, जे यावऽन्ने तहप्पगारा सम्वे ते अधम्मस्थिकायस्स अभिवयणा। [5 प्र.] भगवन् ! अधर्मास्तिकाय के कितने अभिवचन कहे गए हैं ? [5 उ.] गौतम ! (उसके) अनेक अभिवचन कहे गए हैं। यथा-अधर्म, अधर्मास्तिकाय, अथवा प्राणातिपात यावत मिथ्यादर्शनशल्य, अथवा ईर्यासम्बन्धी असमिति, यावत् उच्चार-प्रस्रवण१. (क) भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा. 6, पृ. 2840 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 776 2. वही, पत्र 776 द्रव्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org