________________ 18] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पर्याय पर्यायी के साथ कथञ्चित् एक रूप होते हैं, इसलिए ये सब पर्याय आत्मरूप ही हैं, आत्मा से भिन्न पदार्थ में ये परिणत नहीं होते।' गर्भ में उत्पन्न होते हुए जीव में वर्णादिप्ररूपणा 2. जीवे णं भंते ! गम्भं वक्कममाणे कतिवणं कतिगंध ? एवं जहा बारसमसए पंचमुद्देसे (स० 12 उ०५ सु० 36-37) जाव कम्मनो णं जए, णो अकम्मो विभत्तिभावं परिणमति / सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरति / // वीसइमे सए : तइनो उद्देसओ समत्तो // 20-3 // [2 प्र.] भगवन् ? गर्भ में उत्पन्न होता हुआ जीव कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले परिणामों से युक्त होता है ? [2 उ.] गौतम ! बारहवें शतक के पंचम उद्देशक (सू. 36-37) में जैसा कहा है, उसी प्रकार यहाँ भी यावत्---कर्म से जगत् है, कर्म के बिना जीव में विविध (रूप से जगत् का) परिणाम नहीं होता, यहाँ तक (जानना चाहिए / ) 'हे भगवन् ? यह इसी प्रकार है, भगवन् ? यह इसी प्रकार है', यों कह कर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-प्रस्तुत प्रश्न किस हेतु से उठाया गया है ? यह जानना आवश्यक है, क्योंकि आत्मा (जीव) स्वभावतः अमूर्त है, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श से रहित है, तो फिर वह वर्णादि परिणाम से कैसे परिणमित हो सकता है ? इस शंका का समाधान यह है कि गर्भ में उत्पन्न होता हुआ जीव तेजस एवं कार्मण शरीर से युक्त होता है, तभी बह औदारिक आदि शरीर को ग्रहण करता है शरीर पुद्गलमय है। वह वर्णादियुक्त होता है। इसलिए संसारी जीव वर्णादिविशिष्ट शरीर से कथञ्चित् अभिन्न माना गया है, ऐसी स्थिति में प्रश्न होता है कि शरीररूप धर्म से कथंचित् प्रभिन्न जीवरूपी धर्मी कितने वर्ण, गन्ध, रस और स्पों वाला होता है ? __ इसके उत्तर में भगवान का उत्तर बारहवें शतक के पंचम उद्देशक में कथित है कि पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस और आठ स्पर्श के परिणामों से परिणत शरीर के साथ तादात्म्य-सम्बन्ध वाला जीव गर्भ में उत्पन्न होता है।" कम्मो णं जए. : तात्पर्य--इस पंक्ति का तात्पर्य यह है कि कर्म से ही जगत् यानी संसार की प्राप्ति होती है / कर्म के अभाव में जीव में विविधरूप से जगत् परिणत नहीं होता 13 // वीसवाँ शतक : तृतीय उद्देशक समाप्त / 1. भगवती. प्र. वृत्ति, पत्र 777 2. भगवती, प्रमेयचन्द्रिका टीका भा. 13, पृ. 532 3. वही, पृ. 533 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org