________________ वीसइमं सयं : वीसवां शतक प्राथमिक * व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) सूत्र का यह वीसवाँ शतक है / इसके दस उद्देशक हैं / * प्रथम उद्देशक : 'द्वीन्द्रिय' में द्वीन्द्रिय जीवों से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों के शरीरबन्ध, पाहार, लेश्या, दृष्टि, योग, ज्ञान-प्रज्ञान, संवेदन, संज्ञा-प्रज्ञा, मन, वचन, प्राणातिपात आदि का भाव, समुद्घात, उत्पत्ति एवं स्थिति कितनी होती है ? एवं कौन किससे अल्प या अधिकादि है ? इसकी चर्चा की गई है। * द्वितीय उद्देशक : 'माकाश' में आकाश के प्रकार, धर्मास्तिकायादि शेष अस्तिकायों की जीव रूपता-अजीवरूपता, सीमा तथा धर्मास्तिकाय से लेकर पुद्गलास्तिकाय तक के विविध अभिवचनों (पर्यायवाचक शब्दों) की प्ररूपणा की गई है। तृतीय उद्देशक : 'प्राणवध' में प्रतिपादित किया गया है कि प्राणातिपात श्रादि 18 पापस्थान, चार प्रकार की बुद्धियाँ, अवग्रहादि चार मतिज्ञान, उत्थानादि पांच, नारकत्व, देवत्व, मनुष्यत्व आदि, अष्टविध कर्म, छह लेश्या, पाँच ज्ञान, तीन अज्ञान, चार दर्शन, चार संज्ञा, पांच शरीर, दो उपयोग आदि धर्म आत्मरूप हैं, ये प्रात्मा से अन्यत्र परिणत नहीं होते। चतुर्थ उद्देशक : 'उपचय' में प्रज्ञापनासूत्र के इन्द्रियपद के अतिदेशपूर्वक पांच इन्द्रियों के उपचय का निरूपण किया गया है। पांचवाँ उद्देशक : परमाणु है / परमाणु पुदगल से लेकर द्विप्रदेशी स्कन्ध, त्रिप्रदेशी यावत् दशप्रदेशी तथा संख्यात-असंख्यात-अनन्तप्रदेशी स्कन्ध में पाये जाने वाले वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के विविध विकल्पों की प्ररूपणा की गई है। अन्त में द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव-विषयक परमाणु चतुष्टय के विविध प्रकारों का वर्णन है / छठा उद्देशक : अन्तर है। इसमें प्रतिपादन किया गया है कि पृथ्वीकायिक प्रादि पांच स्थावर जीव रत्नप्रभा और शर्कराप्रभा आदि नरकश्चियों में मरणसमुद्घात करके सौधर्म, ईशान आदि से लेकर ईषत्प्राग्भारपृथ्वी में पृथ्वीकायिकादि के रूप में उत्पन्न होने योग्य हैं, वे पहले आहार करके पीछे उत्पन्न होते हैं या विपरीत रूप से करते हैं ? इसके पश्चात् उन्हीं स्थावरादि के विषय में पूछा गया है कि सौधर्म-ईशान और सनत्कुमार-माहेन्द्रकल्प के मध्य में मरणसमुद्घात करके रत्नप्रभादि नारकपृथ्वियों में पृथ्वीकायादिरूप से उत्पन्न होने योग्य हैं, वे भी पहले अाहार करके पीछे उत्पन्न होते हैं या पहले उत्पन्न होकर पीछे आहार करते हैं ? इसका समाधान किया गया है कि दोनों प्रकार से करते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org