________________ वीसवां शतक : उद्देशक 1] नहीं होते, वचनयोगी भी होते हैं और काययोगी भी। वे नियमतः छह दिशा का आहार लेते-पुद्गल ग्रहण करते हैं। 5. तेसि णं भंते ! जीवाणं एवं सन्ना ति वा पन्ना ति वा मणे ति वा वयो ति वा 'अम्हे णं इट्ठाणिठे रसे इट्ठाणिठे फासे पडिसंवेदेमो' ? जो तिणठे समठे, पडिसंवेदेति पुण ते। ठिती जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं बारस संवच्छराई / सेसं तं चेव। [5 प्र.] क्या उन जीवों को-'हम इष्ट और अनिष्ट रस तथा इष्ट-अनिष्ट स्पर्श का प्रतिसंवेदन (अनुभव) करते हैं', ऐसी संज्ञा, प्रज्ञा, मन अथवा वचन होता है ? [5 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। वे रसादि का संवेदन करते हैं। उनकी स्थिति जघन्य अन्तम हर्त की है और उत्कृष्ट बारह वर्ष की होती है। शेष सब पूर्ववत् समझ लेना चाहिए। 6. एवं तेइंदिया वि। एवं चरिंदिया वि। नाणतं इंदिएसु ठितीए य, सेसं तं चेव, ठिती जहा पन्नवणाए। [6] इसी प्रकार (द्वीन्द्रिय की तरह) त्रीन्द्रिय तथा चतुरिन्द्रिय जीवों के विषय में भी समझना चाहिए। किन्तु इनकी इन्द्रियों में और स्थिति में अन्तर है। शेष सब बातें पूर्ववत् हैं। इनकी स्थिति प्रज्ञापनासूत्र (चौथे पद) के अनुसार जाननी चाहिए। विवेचन-द्वीन्द्रियादि जीवों के स्यात, शरीर, लेश्यादि-निरूपण-प्रस्तुत पांच सूत्रों (सू. 2 से 6 तक) में उन्नीसवें शतक में निर्दिष्ट स्यात्-शरीर-लेश्यादि का निरूपण किया गया है / त्रीन्द्रिय जीवों में विशेष—इन के तीन इन्द्रियाँ होती हैं। इनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त की, उत्कृष्ट 49 अहोरात्र की होती है / ___ चतुरिन्द्रिय जीवों में विशेष--इनके चार इन्द्रियाँ होती हैं ! इनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त को और उत्कृष्ट छह महीनों की होती है।' पंचेन्द्रिय जीवों में स्यात् लेश्यादि द्वारों का निरूपण 7. सिय भंते ! जाव चत्तारि पंच पंचेंदिया एगयो साहारण / एवं जहा बिंदियाणं (सु० 3-5), नवरं छ लेसासो, विट्ठी तिबिहा वि; चत्तारि नाणा, तिण्णि अण्णाणा भयणाए; तिविहो जोगो। [7 प्र.] भगवन् ! क्या कदाचित् दो, तीन, चार या पांच आदि पंचेन्द्रिय मिल कर एक साधारणशरीर बांधते हैं ? इत्यादि पूर्ववत् प्रश्न / - - - 1. श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीवों की स्थिति को जानने के लिए देखें-प्रज्ञापनासूत्र, चतुर्थ पद सू. 370-71 2. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 774 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org