________________ जहाँ पाप प्रवचनकार है, कवि हैं, गायक हैं, वहाँ आप एक कुशल सम्पादक भी हैं। आपने प्राचार्यप्रवर श्री प्रात्मारामजी महाराज द्वारा लिखित "जनतत्त्वकलिका" और जैनागमों में अष्टांग योग पर लिखित जैनयोग: साधना और सिद्धान्त ग्रन्थों का सुन्दर सम्पादन किया है। "व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र" में आपने बहुत सुन्दर सम्पादनकला का चमत्कार प्रदर्शित किया है। आपने प्रस्तुत आगम के प्रत्येक शतक में सर्वप्रथम संक्षेप में सार दिया है, जिससे पाठक उस शतक में आए हुए विषय को सहज रूप में समझ सकता है। भावानुवाद के साथ यत्र-तत्र विवेचन भी किया है। विवेचन विषयवस्तु को स्पष्ट करने के लिए बहुत उपयोगी है। यह विवेचन न अति संक्षिप्त है और न अधिक विस्तृत ही। इस विवेचन में प्राचीन टीकरणों का भी यत्र-तत्र उपयोग किया गया है। इस प्रकार इस पागम का विवेचन प्रबुद्ध पाठकों के लिए अतीव उपयोगी है। इसके स्वाध्याय से पाठकगण अपने जीवन को उज्ज्वल और समुज्ज्वल बनायेंगे। जहाँ अमरमुनिजी की प्रतिभा ने अपना विद्ध रूप प्रस्तुत किया है वहाँ श्री श्रीचन्दजी सुराना 'सरस' की प्रतिभा भी सर्वत्र मुखरित हुई है। संपादनकलामर्मज्ञ पंडित शोभाचन्द्रजी भारिल्ल ने तीक्ष्ण दृष्टि से यत्र-तत्र परिष्कार और परिमार्जन भी किया जो अपने आप में अनठा है। विद्वर्य पं. मुनि श्री नेमिचन्दजो का निष्ठापूर्वक किया गया श्रम भी इसके साथ जुड़ा हुआ है। __ मैं प्रस्तुत आगम पर बहुत ही विस्तार के साथ प्रस्तावना लिखना चाहता था। जब प्रस्तुत आगम का प्रथम भाग प्रकाशित हुआ उस समय मेरा स्वास्थ्य कुछ अस्वस्थ था। इसलिए प्रथम भाग में प्रस्तावना न जा सकी। अब अन्तिम चतुर्थ भाग में प्रस्तावना दी जा रही है। समयाभाव, निरन्तर विहार तथा अन्य अनेक व्यवधानों के कारण मैं चाहते हुए भी प्रस्तावना को विस्तृत न लिख सका। जिस रूप में मैंने प्रस्तावना लिखने का उपक्रम प्रारम्भ किया था अतिशीघ्रता के कारण बाद के विषयों पर जो मैं तुलनात्मक और समीक्षात्मक दृष्टि से लिखना चाहता था, नहीं लिख पाया। इसका स्वयं मेरे मन में मलाल है। यदि कभी समय मिला तो इस विराट्काय प्रागम पर विस्तार के साथ लिखने का प्रयास करूंगा। यह पागम ऐसा आगम है जिस पर जितना लिखा जाय उतना ही कम है। युवाचार्य श्री मधुकरमुनिजी महाराज ने जीवन को साध्य वेला में इस भगीरथ कार्य को हाथ में लिया और अनेक प्रतिभासंपन्न व्यक्तियों के द्वारा इस कार्य को शीघ्र संपादन करने के लिए उत्प्रेरित किया। पर अत्यन्त परिताप है कि क्रूर काल ने असमय में ही उनको हमारे से छीन लिया। उनके जीवनकाल में सम्पूर्ण आगम साहित्य का प्रकाशन नहीं हो सका। तथापि उनकी पावन पुण्यस्मृति में संपादन का कार्य प्रगति पर रहा जिसके फलस्वरूप यह आगममाला प्रकाशित हो रही है / महामहिम विश्वसन्त उपाध्याय अध्यात्मयोगी पूज्य गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी महाराज श्रमण संघ के एक ज्योतिर्धर सन्तरत्न हैं, जो युवाचार्यश्री के सहपाठी रहे हैं। श्रद्धेय सदगुरुवर्य की असीम कृपा से ही मैं प्रस्तावना की कुछ पंक्तियाँ लिख गया है। मुझे पूर्ण विश्वास है कि अन्य आगमों की भांति प्रस्तुत आगम का स्वाध्याय भी श्रद्धालुगण कर अपने जीवन को पावन और पवित्र बनायेंगे / लाल भवन - देवेन्द्र मुनि जयपुर दि. 28-2.86 [105] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org