________________ वि. सं. 2011 में मदनकुमार मेहता ने भगवतीसूत्र शतक एक से बीस तक हिन्दी में विषयानुवाद श्रुतप्रकाशन मन्दिर कलकत्ता से प्रकाशित करवाया। सन 1935 में भगवती विशेष पद व्याख्या दानशेखर द्वारा विरचित ऋषभदेवजी केशरीमल जी जैन श्वेताम्बर संस्था रतलाम से प्रकाशित हुई है। सन 1961 में हिन्दी और गुजराती अनुवाद के साथ पूज्य घामोलालजी म. द्वारा विरचित संस्कृत व्याख्या जैम शास्त्रोद्धार समिति राजकोट से अनेक भागों में प्रकाशित हुई। विक्रम संवत 1914 में पंडित बेचरदास जीवराज दोशी द्वारा सम्पादित "विवाहपण्णत्तिसुतं" प्रकाशित हुमा / सन् 1974 से "विवाहपण्णात्तिसुतं' के तीन भाग महावीर जैन विद्यालय बम्बई से मूल रूप में प्रकाशित हुए हैं। इस प्रकाशन को अपनी मौलिक विशेषता है। इसका मूल पाठ प्राचीनतम प्रतियों के प्राधार से तैयार किया गया है। पाठान्तर और शोधपूर्ण परिशिष्ट भी दिये गये हैं। शोधार्थियों के लिए प्रस्तुत प्रागम अत्यन्त उपयोगी है। विक्रम संवत 2021 में मुनि नथमलजी द्वारा सम्पादित भगवई सूत्र का मूल पाठ जैन विश्वभारती लाइन से प्रकाशित हुप्रा है। इस प्रति की यह विशेषता है कि इसमें जाव शब्द की पूर्ति की गई है। "सुत्तागमे" में मनि पूफ्फभिक्खजी ने 32 आगमों के साथ भगवती का मूल पाठ भी प्रकाशित किया है। संस्कृतिरक्षकसंघ सैलाना से 'अंग सुत्ताणि" के भागों में भी मूल रूप में भगवतीसूत्र प्रकाशित है। भगवतीसूत्र का हिन्दी अनुवाद विवेचन के साथ पंडित घेवरचन्दजी बांठिया द्वारा सम्पादित 7 भाग "साधुमार्गी संस्कृति रक्षक संघ सैलाना' से प्रकाशित हए। विवेचन संक्षिप्त में और सारपूर्ण है। भगवतीसूत्र पर प्राचार्य श्री जवाहरलालजी म. सा. और सागरानन्द सूरीश्वरजी के भी प्रवचनों के अनेक भाग प्रकाशित हुए हैं। पर वे प्रवचन सम्पूर्ण भगवतीसूत्र पर नहीं है। एक लेखक ने भगवती पर शोधप्रबन्ध भी अंग्रेजी में प्रकाशित किया है और तेरापंथी आचार्य जीतमलजी ने भगवती को जोड़ लिखी थी, उसका भी प्रथम भाग लाइन से प्रकाशित हो चुका है। प्रस्तुत आगम स्वर्गीय महामहिम युवाचार्य श्री मधुकरमुनिजी महाराज के कुशल नेतृत्व में आगमबत्तीसी का कार्य प्रारम्भ हप्रा / वह कार्य अनेक मूर्धन्य मनीषियों के सहयोग से शीघ्रातिशीघ्र सम्पादित कर पाठकों के कर-कमलों में पचाने का निर्णय लिया गया / पण्डिसवर मधुरवक्ता बहुश्रुत श्री अमरमुनिजी ने यह अनुवाद किया है। श्री अमरमुनिजी महाराज एक प्रतिभासम्पन्न संतरत्न हैं। आप आचार्य सम्राट अात्मारामजी महाराज के पौत्र शिष्य हैं और भण्डारी श्री पद्मचन्द्रजी महाराज के सुशिष्य हैं। श्री अमरमुनिजी एक सफल प्रवक्ता भी हैं। उनकी विमल वाणी में प्रेरणा है / प्रकृति से उनकी वाणी में सहज मधुरता है। जब वे प्रवचन करते हैं तो श्रोता मानन्द से झम उठते हैं। जब उनकी संगीत की स्वरलहरियां झनझनाती हैं तो धोलानों के हृदयकमल खिल उठते हैं। यही कारण है कि साप 'वाणी के जादुगर' के रूप में विश्रत हैं। पापने लघु वय में संयमसाधना की ओर कदम बढ़ाये और गुरु-चरणों में बैठकर आगमों का अध्ययन किया। आपकी प्रतिभा को निहार कर स्वर्गीय उपाध्याय श्री फूलचन्दजी महाराज ने आपको 'श्रतवारिधि' की उपाधि से समलंकृत किया। आपकी प्रबल प्रेरणा से उत्प्रेरित होकर पंजाब, हरियाणा और देहली प्रादि में यत्र-तत्र धर्मस्थानक और विद्यालयों की स्थापना हुई। आपके प्रवचनों में जैन और अजैन सभी विशाल संख्या में समुपस्थित होते हैं। इसीलिए विश्वसन्त उपाध्याय श्री पुष्कर मुनिजी म. ने मेरठ में प्रापको 'उत्तरभारत केसरी' की उपाधि प्रदान की। आपसे समाज को बहत कुछ प्राशा है। [ 104 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org