________________ तब क्रमशः आगम नहीं लिखे / पूर्व लिखित आगमों में जो विषयवर्णन आ चुका था, उसकी पुनरावृत्ति से बचने के लिए पूर्व लिखित प्राममों का निर्देश किया है। यह सत्य है कि भगवतीसूत्र के अर्थ के प्ररूपक स्वयं भगवान् महावीर हैं और सूत्र के रचयिता गणधर सुधर्मा हैं। प्रस्तुत आगम की भाषा प्राकृत है। इसमें शौरसेनी के प्रयोग भी कहीं-वहीं पर प्राप्त होते हैं / किन्तु देशी शब्दों के प्रयोग यत्र-तत्र मिलते हैं। भाषा सरल व सरस है। अनेक प्रकरण कथाशैली में लिखे गये हैं। जीवनप्रसंगों, घटनाओं और रूपकों के माध्यम से कठिन विषयों को सरल करके प्रस्तुत किया गया है / मुख्य रूप से यह पागम गद्यशैली में लिखा हा है। प्रतिपाद्य विषय का संकलन करने की दृष्टि से संग्रहणीय गाथानों के रूप में पद्य भाग भी प्राप्त होता है। कहीं-वहीं पर स्वतन्त्र रूप से प्रश्नोत्तर हैं, तो कहीं पर घटनाओं के पश्चात् प्रश्नोत्तर आये हैं। जैन आगमों की भाषा को कुछ मनीषी आर्ष प्राकृत कहते हैं। यह सत्य है कि जैन ग्राममों में भाषा को उतना महत्त्व नहीं दिया है जितना भावों को दिया है। जैन मनीषियों का यह मानना रहा है कि भाषा ग्रात्म-शूद्धि या आत्म-विकास का कारण नहीं है। वह केवल विचारों का वाहन है। मंगलाचरण प्रस्तुत आगम में प्रथम मंगलाचरण नमस्कार महामंत्र से और उसके पश्चात् 'नमो बंभीए लिवीए' 'नमो सुयस्स' के रूप में किया है। उसके पश्चात् 15 बें, 17 वें, 23 वें और 26 वें शतक के प्रारम्भ में भी "नमो सुयदेवयाए भगवईए" इस पद के द्वारा मंगलाचरण किया गया है। इस प्रकार 6 स्थानों पर मंगलाचरण है, जबकि अन्य आगमों में एक स्थान पर भी मंगलाचरण नहीं मिलता है। प्रस्तुत आगम के उपसंहार में "इक्कचत्तालीसइमं रासीजुम्मसयं समत्तं" यह समाप्तिसूचक पद उपलब्ध है। इस पद में यह बताया गया है कि इसमें 101 शतक थे। पर वर्तमान में केवल 41 शतक ही उपलब्ध होते हैं। समाप्तिसूचक इस पद के पश्चात् यह उल्लेख मिलता है कि-"सव्वाए भगवईए अठ्तीसं सयं सयाणं (138) उद्देस गाणं 1925" इन शतकों की संख्या अर्थात् अवान्तर शतकों को मिलाकर कुल शतक 138 है और उद्देशक 1925 है। प्रथम शतक से बत्तीसवें शतक तक और इकतालीसवें शतक में कोई अवान्तर शतक नहीं हैं। तेतीसवें शतक से उनचालीसवें शतक तक जो सात शतक हैं, उनमें बारह-बारह अवान्तर शतक हैं। चालीसवें शतक में इक्कीस अवान्तर शतक हैं। अत: इन आठ शतकों की परिगणना 105 अवान्तर शतकों के रूप में की गई है। इस तरह अवान्तर शतक रहित तेतीस शतकों और 105 अवान्तर शतक वाले आठ शतकों को मिलाकर 138 शतक बताये गये हैं। किन्तु संग्रहणी पद में जो उद्देशकों की संख्या 'एक हजार नौ सौ पच्चीस' बताई गई है, उसका अाधार अन्वेषणा करने पर भी प्राप्त नहीं होता। प्रस्तुत प्रागम के मूल पाठ में इसके शतकों और अवान्तर शतको की उद्देशकों की संख्या दी गई है। उसमें चालीसवें शतक के इक्कीस प्रवान्तर शतकों में से अन्तिम सोलह से इक्कीस अवान्तर शतकों के उद्देशकों की संख्या स्पष्ट रूप से नहीं दी गई है, किन्तु जैसे इस शतक से, पहले पन्द्रहवें अवान्तर शतक से पहले प्रत्येक की उद्देशक संख्या ग्यारह बताई है, उसी तरह शेष अवान्तर शतकों में से प्रत्येक की उद्देशकसंख्या ग्यारह-ग्यारह मान लें तो व्याख्याप्रज्ञप्ति के कुल उद्देशकों की संख्या "एक हजार आठ सौ तेरासी" होती है। कितनी प्रतियों में "उद्देसगाण" इतना ही पाठ प्राप्त होता है। संख्या का निर्देश नहीं किया गया है। इसके बाद एक गाथा है, जिसमें व्याख्याप्रज्ञप्ति की पदसंख्या चौरासी लाख बताई है। आचार्य अभय देव ने इस गाथा की "विशिष्ट सम्प्रदायगम्यानि" कह कर व्याख्या की है। इसके बाद की गाथा में संघ की समुद्र के साथ तुलना की है और गौतम प्रति गणधरों को व भगवती प्रति [ 101 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org