________________ रथमूसल संग्राम हए थे, उन यूद्धों का मार्मिक वर्णन विस्तार के साथ दिया गया है। इन युद्धों में क्रमशः चौरासी लाख और छियानवें लाख वीर योद्धानों का संहार हुआ था। युद्ध कितना संहारकारी होता है, देश की सम्पत्ति भी विपत्ति के रूप में किस प्रकार परिवर्तित हो जाती है ! युद्ध में उन शक्तियों का संहार हुप्रा जो देश की अनमोल निधि थी। इसलिए युद्ध की भयंकरता बताकर उससे बचने का संकेत भी प्रस्तुत प्रागम में है। इक्कीसवें शतक से लेकर तेईसवें शतक तक वनस्पतियों का जो वर्गीकरण किया गया है, वह बहुत ही दिलचस्प है। इस वर्णन को पढ़ते समय ऐसा लगता है कि जैनमनीषी-गण वनस्पति के सम्बन्ध में व्यापक जानकारी रखते थे। वनस्पतिकाय के जीव किस ऋतु में अधिक आहार करते हैं और किस ऋतु में कम आहार करते हैं, इस पर भी प्रकाश डाला है। वर्तमान विज्ञान की दृष्टि से यह प्रसंग चिन्तनीय है। प्रस्तुत आगम में 'पालअ' शब्द का प्रयोग अनन्तजीव वाली वनस्पति में हुआ है। यह 'पाल' अथवा 'पालुक' वनस्पति वर्तमान में प्रचलित "मालू" से भिन्न प्रकार की थी या यही है ? भारत में पहले पालू की खेती होती थी या नहीं, यह भी अन्वेषणीय है। प्रस्थ प्रस्तुत आगम में इतिहास, भूगोल, खगोल, समाज और संस्कृति, धर्म और दर्शन और उस युग की राजनीति आदि पर जो विश्लेषण किया गया है वह शोधाथियों के लिए अद्भुत है, अनूठा है / प्रश्नोत्तरों के माध्यम से जो आध्यात्मिक गुरु गंभीर तत्त्व समुद्घाटित हुए हैं, वह बोधप्रद हैं / प्रस्तुत आगम में आजीवक संघ के प्राचार्य मंलि गोशालक, जमाली, शिवराजषि, स्कन्धक संन्यासी आदि के प्रकरण बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। उस युग में वर्तमान युग की तरह संकीर्ण सम्प्रदायवाद नहीं था। उस युग के संन्यासी सत्य को प्राप्त करने के लिए तत्पर रहते थे। यही कारण है कि स्कन्धक संन्यासी जिज्ञासु बनकर भगवान् महावीर के पास पहुंचे और जब उनको जिज्ञासाओं का समाधान हो गया तो सम्प्रदाय. वाद सत्य को स्वीकार करने में बाधक नहीं बना / तत्त्व-चर्चा की दृष्टि से जयन्ती श्रमणोपासिका, मद्दुक श्रमगोपासक, रोह अनगार, सोमिल ब्राह्मण, कालास्यवेशीयुत्त और तुंगिया नगरी के श्रावकों के प्रश्न मननीय हैं। प्रस्तुत पागम में साधु, श्रावक और श्राविका के द्वारा किए गए प्रश्न आये हैं, पर किसी भी साध्वी के प्रश्न नहीं पाये हैं / क्यों नहीं साध्वियों ने जिज्ञासाएं व्यक्त की ? वे समवसरण में उपस्थित होती थीं, उनके अन्तर्मानस में भी जिज्ञासाओं का सागर उमड़ता होगा, पर वे मौन क्यों रहीं? यह विचारणीय है। प्रस्तुत प्रागम में जहाँ प्राजीवक, वैदिक परम्परा के तापस और परिव्राजक भगवान पार्श्वनाथ के श्रमण और भगवान् महावीर के चतुर्विध संघ का इसमें निर्देश है। तथागत बुद्ध महावीर के समकालीन थे और दोनों का विहरणक्षेत्र भी बिहार आदि प्रदेश थे। पर न तो स्वयं बुद्ध का भगवान महावीर से साक्षात्कार हुआ और न किसी भिक्षु का ही। ऐसा क्यों ? यह भी विचारणीय है। इसके अतिरिक्त पूर्ण काश्यप, अजितकेशकम्बल, प्रबुद्ध कात्यायन, संजयवे लट्ठीपुत्त, आदि जो अपने आपको जिन मानते थे तथा तीर्थंकर कहते थे, वे भी भगवान् महावीर से नहीं मिले हैं। यह भी चिन्तनीय है। गणित की दृष्टि से पावपित्यीय गांगेय अनगार के प्रश्नोत्तर अत्यन्त मूल्यवान् हैं। भगवतीसूत्र का पर्यवेक्षण करने से यह भी पता चलता है कि भगवान महावीर ने साध्वाचार के सम्बन्ध में एक विशेष क्रान्ति की थी और उस क्रान्ति से भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के श्रमण अपरिचित थे / भगवान् महावीर ने स्त्रीत्याग और रात्रिभोजनविरमण रूप दो नियम बढाये। उत्तराध्ययन में केशो-गौतम संवाद से [ 99] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org