________________ पागम साहित्य में संज्ञा के दस प्रकार भी बताये हैं—आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा, क्रोधसंज्ञा, मानसंज्ञा, मायासंज्ञा, लोभसंज्ञा, लोकसंज्ञा और प्रोघसंज्ञा। ये दस संज्ञायें एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक सभी जीवों में होती हैं। ये दस संज्ञाएं भी अनुभव रूप ही हैं। इस प्रकार ज्ञान रूप और अनुभवरूप संज्ञा के आधार पर संज्ञी नहीं कहा जा सकता। जिस संज्ञा के अाधार पर संज्ञी शब्द व्यवहत हमा है, वह संज्ञा तीन प्रकार की है-दीर्घकालिकी, हेतुवादिकी और दृष्टिवादिकी। जिसमें दीर्घकालिकी संज्ञा हो वह संज्ञो है / दीर्घकालि की संज्ञा में भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों में घटने वाली घटनाओं पर चिन्तन होता है। दीर्घकालिको संज्ञा को संप्रधारणसंज्ञा भी कहा है। ऐसे संज्ञी को समनस्क कहा हैं। देव, नारक, गर्भज तिर्यञ्च और गर्भज मनुष्य ये सभी संजी हैं। इस प्रकार संसारी जीव के चौदह प्रकार हैं। __ प्रस्तुत पागम में अनेक दृष्टियों से और अनेक प्रश्नों के माध्यम से जीव और जीव के भेद-प्रभेदों के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है / शरीर भगवतीसूत्र शतक सोलहवें, उद्देशक पहले में तथा अन्य स्थलों पर भी शरीर के सम्बन्ध में जिज्ञासाएं प्रस्तुत की हैं। भगवान् महावीर ने शरीर के प्रौदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस और कार्मण ये पांच प्रकार बताये हैं। पारमा अरूप है, अशब्द है, अगन्ध है, अरस है और अस्पर्श है। इस कारण वह अश्य है / पर मूर्त शरीर से बन्धने के कारण वह दुग्गोचर होता है। आत्मा जब तक संसार में रहेगा वह स्थल या सूक्ष्म शरीर के आधार से ही रहेगा। जीव की जितनी भी प्रवृत्तियां हैं वे प्रायः सभी शरीर के द्वारा होती हैं / औदारिक शरीर की निष्पत्ति स्थल पुदगलों के द्वारा होती है। उस शरीर का छेदन-भेदन भी होता है और मोक्ष की उपलब्धि भी इसी शरीर के द्वारा होती है / वैक्रिय शरीर के द्वारा विविध रूप निर्मित किये जा सकते हैं / मृत्यु के पश्चात् इस शरीर की अवस्थिति नहीं रहती। वह कपूर की तरह उड़ जाता है। नारक और देवों में यह शरीर सहज होता है, मनुष्य और तिर्यञ्च में यह शरीर लब्धि से प्राप्त होता है। विशिष्ट योगशक्तिसम्मन चतुर्दशर्वी मुनि किसी विशिष्ट प्रयोजन से जिस शरीर की संरचना करते हैं वह पाहारक शरीर है। जो शरीर दीप्ति का कारण है और जिसमें आहार प्रादि पचाने की क्षमता है वह तैजस शरीर है। इस शरीर के अंगोपांग नहीं होते और पूर्ववर्ती तीनों शरीरों से यह शरीर सुक्ष्म होता है। जो शरीर चारों प्रकार के शरीरों का कारण है और जिस शरीर का निर्माण ज्ञानावरणीय प्रादि पाठ प्रकार के कर्मपुदगलों से होता है वह कामण शरीर है। तैजस और कार्मण शरीर प्रत्येक संसारी जीव के साथ रहते हैं। इन दोनों शरीरों के छटते ही प्रात्मा मुक्त बन जाता है। इन्द्रियाँ भगवतीसूत्र शतक दो, उद्देशक चार में गणधर गौतम की जिज्ञासा पर भगवान महावीर ने इन्द्रियों के पांच प्रकार बताये हैं / एक निश्चित विषय का ज्ञान कराने वाली प्रात्म-चेतना इन्द्रिय है। ज्ञान प्रात्मा का गुण है, वह चेतना का अभिन्न अंग है। इसलिए प्रात्मा और ज्ञान के बीच में किसी प्रकार का व्यवधान नहीं रहता। पर जो आत्मा कर्म पुद्गलों से आबद्ध है, उसका ज्ञान पावत हो जाता है / उस ज्ञान को प्रकट करने का माध्यम इन्द्रियाँ हैं / इन्द्रियों के भी दो प्रकार हैं-द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय / इन्द्रियों का आकार विशेष द्रव्येन्द्रिय है। यह आकार संरचना पौद्गलिक है इसलिए द्रव्येन्द्रिय के भी निर्वृत्ति द्रव्येन्द्रिय और उपकरण द्रव्येन्द्रिय ये दो प्रकार हैं / यहाँ पर निवृत्ति का अर्थ प्राकार-रचना है / यह प्राकार-रचना बाह्य और प्राभ्यन्तर रूप से दो प्रकार की है। बाह्य [88] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org