________________ हाथ में है। नवमें दसवें का एक इन्द्र है। ग्यारहवें, बारहवें का भी एक इन्द्र है। इस प्रकार बारह देवलोकों के दस इन्द्र हैं। देवगति का प्रायु पूर्ण कर कोई भी देव पुन: देव नहीं बनता / पागम में देवों के द्रव्यदेव, नरदेव, धर्मदेव, देवाधिदेव और भावदेव प्रादि भेद किये हैं। भविष्य में देवरूप में उत्पन्न होने वाला जीव द्रव्यदेव है। चक्रवर्ती नरदेव है। साधु धर्मदेव है। तीर्थंकर देवाधिदेव हैं और देवों के चार निकाय भावदेव हैं। प्रात्मा के पाठ प्रकार भगवतीसूत्र शतक बारह, उद्देशक दस में प्रात्मा के पाठ प्रकार बताये हैं। प्रात्मा एक चेतनावान् पदार्थ है। चेतना उसका धर्म है और उपयोग प्रात्मा का लक्षण है। चेतना सदा सर्वदा एक सदश नहीं रहती। उसमें रूपान्तरण होता रहता है। रूपान्तरण को ही जनदर्शन में पर्याय-परिवर्तन कहा गया है / जो भी द्रव्य होता है वह बिना गुण और पर्याय के नहीं होता, गुण सर्वदा साथ होता है तो पर्याय प्रतिपल प्रतिक्षण परिवर्तित होती रहती है। आत्मा एक द्रव्य है, तथापि पर्यायभेद की दृष्टि से उसके अनेक रूप दम्मोचर होते हैं। द्रव्य-पात्मा वह है जो चेतनामय, असंख्य अविभाज्य प्रदेशों-अवयवों का अखण्ड समूह है। इसमें केवल विशुद्ध आत्मद्रव्य की ही विवक्षा की गई हैं। पर्यायों की सत्ता होने पर भी उन्हें गौण कर दिया गया है। यह प्रात्मा का कालिक सत्य है, तथ्य है, जिसके कारण से नात्मद्रव्य अनात्मद्रव्य नहीं बनता। द्रव्य-मात्मा शुद्ध चेतना है। क्रोध-मान-माया-लोम से रंजित होने पर आत्मा कषाय-प्रात्मा के रूप में पहचाना जाता है। प्रात्मा की जितनी भी प्रवृत्तियाँ हैं वे योग द्वारा होती हैं। इसलिए आत्मा को भी योग-प्रात्मा के नाम से पहचान कराई गई है। चेतना जब व्याप्त होती है तब वह उपयोग-प्रात्मा है / ज्ञानात्मक और दर्शनात्मक चेतना को क्रमश: ज्ञान-ग्रात्मा और दर्शन-प्रात्मा कहा गया है। प्रात्मा की विशिष्ट संयममूलक अवस्था चरित्र-प्रात्मा के रूप में विश्रुत है / प्रात्मा की शक्ति वीर्यप्रात्मा के रूप में जानी और पहचानी जाती है / आत्मा के ये जो पाठ प्रकार बताये हैं वे अपेक्षा दृष्टि से बतलाये गये हैं। बात्मा का जो पर्यायान्तरण होता है, वह केवल इन पाठ बिन्दुओं तक ही सीमित नहीं है। प्रात्मा के जितने पर्यायान्तरण हैं उतनी ही प्रात्मायें हो सकती हैं। इस रष्टि से प्रात्मा के अनंत भेद भी हो सकते हैं / प्रस्तुत मागम में इन आठों प्रात्माओं के प्रकारों का अल्पबहत्व भी दिया है। जीव के चौदह भेद भगवतीसूत्र शतक 25, उद्देश्यक 1 में संसारी जीव के चौदह भेद बताये हैं / एकेन्द्रिय जीव के चार भेद, पञ्चेन्द्रिय जीव के चार भेद और विकलेन्द्रिय जीव के छः भेद हैं। एकेन्द्रिय जीव के सूक्ष्म और बादर, पर्याप्त और अपर्याप्त ये चार प्रकार हैं। सूक्ष्मनामकर्म के उदय से जिन जीवों का शरीर नर्मचक्ष से निहारा नहीं जा सकता बे सूक्ष्मएकेन्द्रिय जीव हैं। ये सूक्ष्म जीव चतुर्दश रज्जुपमाण सम्पूर्ण लोक में परिव्याप्त हैं। लोक में ऐसा कोई भी स्थान नहीं जहाँ पर ये जीवन हों। ये जीव इतने सूक्ष्म हैं कि पर्वत की कठोर चट्टान को चीरकर भी प्रार-पार हो जाते हैं। किसी के मारने से नहीं मरते / विश्व की कोई भी वस्तु उनका घात-प्रतिघात नहीं कर सकती। साधारण वनस्पति के सूक्ष्म जीवों को सूक्ष्मनिगोद भी कहते हैं / साधारण वनस्पतिकाय का शरीर निगोद कहलाता है। इस विश्व में असंख्य गोलक हैं। एक एक गोलक में असंख्यात निगोद हैं और एक एक निगोद में अनन्त जीव हैं। इनका आयुष्य अन्तर्मुहूर्त होता है / बादरनामकर्म के उदय से जिन जीवों का शरीर चर्मचक्ष से देखा जा सके, वे बादर-एकेन्द्रिय जीव हैं। बादर-एकेन्द्रिय जीव लोक के लियत क्षेत्र में ही प्राप्त होते हैं। पांच स्थावर के भेद से बादर-एकेन्द्रिय के पांच [86 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org