________________ शब्द का व्यवहार 'पालय-विज्ञान' या 'चेतना-संतति' रहा है। पर जैनदर्शन में पुद्गल शब्द मूर्त्तद्रव्य के अर्थ में है। केवल भगवतीसूत्र शतक क, उद्देशक 10 में अभेदोपचार से पुद्गलयुक्त आत्मा को भी पुद्गल कहा है / पर शेष सभी स्थलों पर पुद्गल को पूरणगलनधर्मी कहा है। 'तत्त्वार्थ राजवार्तिक,303 सिद्धसेनीया 'तत्त्वार्थवृत्ति',30४ धवला30" और हरिवंशपुराण,30६ आदि अनेक ग्रन्थों में गलन-मिलन स्वभाव वाले पदार्थ को पुद्गल कहा है। पुद्गल वह है जिसका स्पर्श किया जा सके, जिसका स्वाद लिया जा सके, जिसको गन्ध ली जा सके और जिसे निहारा जा सके। पुद्गल में स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण ये चारों अनिवार्य रूप से पाये त भगवतीसूत्र शतक 2, उह शक 10 में स्पष्ट की गई है। भगवतीसत्र शतक 2, उद्देशक 10 में पुद्गल के चार प्रकार बताये हैं। (1) स्कन्ध, (2) देश, (3) प्रदेश और (4) परमाणु300 / दो से लेकर अनन्त परमाणुयों का एकीभाव स्कन्ध है। कम से कम दो परमाणु पुद्गल के मिलने से द्विप्रदेशी स्कन्ध बनता है / द्विप्रदेशी स्कन्ध का जब भेद होता है तो वे दोनों परमाणु बन जाते हैं। तीन परमाणुओं के मिलने से त्रिप्रदेशी स्कन्ध बनता है और उनके पथक् होने पर दो विकल्प हो सकते हैं-एक तीन . . . परमाणु या एक परमाणु और एक द्विप्रदेशी स्कन्ध / इसी प्रकार अनन्त परमाणुओं के स्वाभाविक मिलन से एक लोकव्यापी महास्कन्ध भी बन जाता है। प्राचार्य उमास्वाति ने लिखा है 30% कन्ध का निर्माण तीन प्रकार से होता हैभेदपूर्वक, संघातपूर्वक, भेद और संघातपूर्वक / स्कन्ध एक इकाई है। उस इकाई का बुद्धिकल्पित एक विभाग स्कन्धदेश कहलाता है / हम जिसे देश कहते हैं वह स्कन्ध से पृथक् नहीं है। यदि पृथक् हो जाय तो वह स्वतन्त्र स्कन्ध बन जायेगा / स्कन्धप्रदेश स्कन्ध से अपृथक्भूत अविभाज्य अंश है। अर्थात् परमाणु जब तक स्कन्धगत है तब तक वह स्कन्धप्रदेश कहलाता है। वह अविभागी अंश सूक्ष्मतम है, जिसका पुनः अंश नहीं बनता / जब तक वह स्कन्धमत है वह प्रदेश है और अपनी पृथक अवस्था में वह परमाणु है। भगवतीसूत्र शतक 5, उद्देशक 7 में स्पष्ट शब्दों में कहा है कि परमाणुपुद्गल अविभाज्य है, अछेद्य है, अभेद्य है, प्रदाह्य है और अग्राह्य है / वह तलवार की तीक्ष्ण धार पर भी रह सकता है। तलवार उस का छेदन-भेदन नहीं कर सकती और न जाज्वल्यमान अग्नि उसको जला सकती है / प्रदेश और परमाणु में केवल स्कन्ध से अपृथक्भाव और पृथक्भाव का अन्तर है। अनुसंधान से यह निश्चित हो चुका है कि परमाणुवाद की चर्चा सर्वप्रथम भारत में हुई और उसका श्रेय जैन मनीषियों को है। 308 भगवतीसूत्र शतक आठ, उद्देशक पहले में जीव और पुद्गल की पारस्परिक परिणति को लेकर पुद्गल के तीन भेद किये हैं-१. प्रयोगपरिणत-जो पुद्गल जीव द्वारा ग्रहण किये गए हैं वे प्रयोगपरिणत हैं, जैसेइन्द्रियाँ, शरीर आदि के पुद्गल / २.-मिश्रपरिणत-ऐसे पुद्गल जो जीव द्वारा मुक्त होकर पुनः परिणत हो 303. तत्त्वार्थ राजवार्तिक 5 / 1 / 1 / 24 304. (क) तत्त्वार्थवृत्ति 5 / 1 (ख) न्यायकोष पृष्ठ 520 305. छबिहसंठाणं बहुविहि देहेहि पूरदित्ति गलदित्ति पोग्गला / 306. हरिवंशपुराण 7 / 36 , 307. (क) भगवती. 2 / 10 (ख) उत्तराध्ययन 36 / 10 308. तत्त्वार्थसूत्र 5 / 26 309. देखिए-जैनदर्शन : स्वरूप और विश्लेषण में पुद्गल का लेख –देवेन्द्र मुनि [ 94] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org