________________ वे आत्मा को प्रभावित करेंगे / फिर मुक्ति का अर्थ क्या रहा ? यदि वे एक-दूसरे को प्रभावित नहीं करते हैं तो फिर बन्ध की प्रक्रिया कैसे होगी? इस प्रश्न का उत्तर 'समयसार' ग्रन्थ में30२ प्राचार्य कुन्दकुन्द ने इस प्रकार दिया है--सोना कीचड़ में रहता है तो भी उस पर जंग नहीं लगता, जब कि लोहे पर जंग या जाता है। शुद्धात्मा कर्मपरमाणुओं के बीच में रह कर भी वह विकारी नहीं बनता। कर्मपरमाणु उसी आत्मा को प्रभावित करते हैं, जो पूर्व रागद्वेष से ग्रसित हैं। जब रागादि भाव कर्म होते हैं तभी द्रव्यकों को प्रात्मा ग्रहण करता है। भावार्म के कारण ही द्रव्यकर्म का आस्रव होता है और वही द्रव्यकर्म समय आने पर भावकर्म का कारण बन जाता है / इस प्रकार का कर्मप्रवाह सतत चलता रहता है। कर्म और आत्मा का सम्बन्ध कबसे हुआ? इस प्रश्न पर चिन्तन करते हुए पूर्वाचायों ने कहा है कि एक कर्म-विशेष की अपेक्षा कर्म सादि है और कर्मप्रवाह की दृष्टि से वह अनादि है। यह नहीं कि आत्मा पहले कर्म मुक्त था, बाद में कर्म से प्राबद्ध हुया / कर्म अनादि हैं, अनादि काल से चले आ रहे हैं और जब तक रागद्वेषरूपी कर्मवीज जल नहीं जाता है तब तक कर्मप्रवाह-परम्परा भी समाप्त नहीं होती। भगवतीसूत्र शतक 1, उद्देशक 2 में गणधर गौतम ने यह जिज्ञासा प्रस्तुत की कि प्राणी स्वकृत सुख और दुःख को भोगता है या परकृत सुख और दु:ख को भोगता है ? भगवान महावीर ने यह स्पष्ट किया कि प्राणी स्वकृत सुख-दुःख को भोगता है, पर कृत सुख-दुःख को नहीं। भगवतीसूत्र शतक 6, उद्देशक 9 में और शतक 8, उद्देशक 10 में कर्म की पाठ प्रकृतियां बताई हैं और उनके अल्प-बहत्व पर भी चिन्तन किया है और शतक 6, उद्देशक 3 में प्राठों कर्मों की स्थिति पर भी प्रकाश डाला है। शतक 6, उद्देशक 3 में कर्म कौन बांधता है ? इसके उत्तर में कहा है कि तीनों वेद वाले कर्म बांधते हैं / असंयत, संयत, संयतासंयत, सभी कर्म बाँधते हैं किन्तु नोसंयत-नोअसंयत-नोसंयतासंयत यानी सिद्ध कर्म नहीं बाँधते हैं। इसी प्रकार संशी, भवसिद्धिक, चक्षुदर्शनी, पर्याप्त और अपर्याप्त, परीत, अपरीत मनयोगी, बचन योगी, काययोगी, आहारक, अनाहारक कौन कर्म बांधते हैं, इस पर भी गहराई से चिन्तन प्रस्तुत किया गया है। शतक 18, उद्देशक 3 में माकन्दीपुत्र ने भगवान से पूछा- एक जीव ने पापकर्म किया है या अब करेगा, इन दोनों में क्या अन्तर है ? भगवान् ने बाण के रूपक द्वारा इस प्रश्न का समाधान दिया। शतक 1, उद्देशक 3 में गणधर गौतम ने पूछा- जीव कांक्षामोहनीय कर्म किस प्रकार बांधता है ? इस प्रश्न के समाधान में भगवान ने बांधने की सारी प्रक्रिया प्रस्तुत की। इस तरह विविध प्रश्न बम के सम्बन्ध में विभिन्न जिज्ञासुमों ने भगवान महावीर के सामने रखे और उन प्रश्नों का सटीक समाधान प्रस्तुत किया। वस्तुत: जैनदर्शन का कर्मसिद्धान्त बहुत ही अनठा और अद्भुत है। आगमसाहित्य में आये हुए कर्मसिद्धान्त के बीजसुत्रों को परवर्ती आचार्यप्रबरों ने इतना अधिक विस्तत किया कि आज लगभग एक लाख श्लोक प्रमाण श्वेताम्बर कर्म साहित्य है, तो दो लाख श्लोकप्रमाण दिगम्बर मनीषियों द्वारा लिखा हुआ कर्म साहित्य है। पुद्गल : एक चिन्त पुदगल जैनदर्शन का पारिभाषिक शन्द रहा है जिसे आधुनिक विज्ञान ने मैटर (Matter) और न्याय-वैशेषिक दर्शनों ने भौतिक तत्व कहा है, उसे ही जैन दार्शनिकों ने पुद्गल कहा है। बौद्ध दर्शन में पुद्गल -------- __.. - - 302. समयसार 218, 219 [ 93 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org