________________ प्राकार प्रत्येक जीव का पृथक-पृथक होता है, पर सभी का आभ्यन्तर आकार एक सदश होता है / द्रव्येन्द्रिय का दूसरा प्रकार उपकरणदपेन्द्रिय है। इन्द्रिय की प्राभ्यन्तर निबत्ति में स्व-स्व विषय को ग्रहण करने की जो शक्तिविशेष है, वह उपकरणद्रव्येन्द्रिय है। उपकरणद्रव्येन्द्रिय के क्षतिग्रस्त हो जाने पर नित्तिद्रव्येन्द्रिय कार्य नहीं कर पाती। भावन्द्रिप के भी लब्धिभावेन्द्रिय और उपयोगभावेन्द्रिय ये दो प्रकार हैं / ज्ञान करने की क्षमता लब्धिभावेन्द्रिय है। यह शक्ति ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपणम से प्राप्त होती है। शक्ति प्राप्त होने पर भी वह शक्ति तब तक कार्यकारिणो नहीं होती जब तब उसका उपयोग न हो / अतः ज्ञान करने की शक्ति और उस शक्ति को काम में लेने के साधन उपलब्ध करने पर भी उपयोगभावेन्द्रिय के अभाव में सारी उपलब्धियाँ निरर्थक हो जाती हैं। भाषा भगवतीसूत्र शतक तेरह, उद्देशक सात में भाषा के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रस्तुत की गई है। भाषावर्गणा के पुदगल किस प्रकार ग्रहण किये जाते हैं, प्रादि के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है। वैशेषिक और नैयायिक दर्शन की तरह जैन दर्शन शब्द को आकाश का गुण नहीं मानता, पर वह भाषावर्गणा के पुदगलों का एक प्रकार का विशिष्ट परिणाम मानता है। जो शब्द आत्मा के प्रयास से समुत्पन्न होते हैं वे प्रयोगज हैं और बिना प्रयास के जो समुत्पन्न होते हैं वे वैधसिक हैं, जैसे बादल की गर्जना। भाषा रूपी है या अरूपी है ? इसके उत्तर में कहा गया-भाषा रूपी है, अरूपी नहीं। गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की कि जीवों की भाषा होती है या अजीत्रों की ? भगवान ने समाधान दिया-जीव ही भाषा बोलते हैं, अजीव नहीं और जो बोली जाती है वही भाषा है। भाषा के सम्बन्ध में प्रज्ञापनासूत्र की प्रस्तावना में हमने विस्तार से लिखा है। अत: जिज्ञासु उसका अवलोकन करें। मन और उसके प्रकार भगवतीसूत्र शतक तेरह, उद्देशक सात में गणधर गौतम ने मन के सम्बन्ध में जिज्ञासाएँ प्रस्तुत की हैं। प्रागम साहित्य में मन के लिए 'अनिन्द्रिय' और 'नोइन्द्रिय' शब्दों का प्रयोग हुप्रा है। मन इन्द्रिय तो नहीं है पर इन्द्रिय सदृश है / वह भी इन्द्रियों के समान विषयों को ग्रहण करता है। मन के भी यमन और भावमन ये दो प्रकार हैं। द्रव्यमान पुद्गल रूप होने से जड़ है तो भावमन ज्ञानावरणकर्म का क्षयोपशम रूप होने से चेतनस्वरूप है / भावमन सभी जीवों के होता है पर द्रब्धमन सभी के नहीं होता। प्रस्तुत प्रागम में द्रव्यमन के सम्बन्ध में ही जिज्ञासा की गयी है कि मन आत्मा है या अन्य ? भगवान् महावीर ने कहा-मन प्रात्मा नहीं पर पुद्गलस्वरूप है। मन पुद्गलस्वरूप है तो वह रूपी है या ग्ररूपी है। समाधान दिया गया--मन रूपी है। पुनः जिज्ञासा प्रस्तुत को-मन जोब के होता है या अजीव के ? समाधान-मन जीव के होता है अजीव के नहीं और उस मन के सत्यमन, असत्यमन, मिश्रमन और व्यवहारमन, ये चार प्रकार हैं। दिगम्बरपरम्परा के अनुमार मन का स्थान हृदय में है, उन्होंने मन का प्राकार आठ पंखुडी वाले कमल के सदृश माना है, पर श्वेताम्बर ग्रन्थों के अनुसार मन का स्थान सम्पूर्ण शरीर है। 'यत्र पवनस्तत्र मनः' शरीर में जहां-जहाँ पर पवन है, वहाँवहाँ पर मन है। जैसे पवन सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहता है वैसे मन भी सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है। भाव और उसके प्रकार भगवतीसूत्र शतक सत्रह, उद्देशक पहले में गणधर गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की-भगवन् ! भाव के कितने प्रकार हैं ? भगवान महावीर ने समाधान दिया-भाव के पांच प्रकार हैं। भाव का अर्थ है-कमों के . [ 89] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org