________________ भगवतीसूत्र शतक 5, उद्देशक 4 में प्रमाण के प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और पागम ये चार प्रकार माने हैं / प्रत्यक्ष प्रमाण के इन्द्रियप्रत्यक्ष, नोइन्द्रियप्रत्यक्ष-ये दो भेद किये हैं। अनुमान प्रमाण के पूर्ववत्, शेषवत् और दृष्टसाधम्र्यवत-ये तीन प्रकार प्रतिपादित किये हैं। उपमान प्रमाण के भेद-प्रभेद नहीं हैं। प्रागम प्रमाण के लौकिक और लोकोत्तर—ये दो भेद बताकर लौकिक में भारत, रामायण प्रादि ग्रन्थों का सूचन किया है तो लोकोत्तर आगम में द्वादशांगी का निरूपण किया है। इस प्रकार प्रस्तुत प्रागम में प्रमाण के सम्बन्ध में चिन्तन है। यह चिन्तन अनयोगद्वारसूत्र में और अधिक विस्तार से प्रतिपादित है। भगवतीसूत्र शतक 7, उद्देशक 4 में जीबों के विविध भेद-प्रभेदों पर चिन्तन किया गया है। जीवविज्ञान जैन दर्शन की अपनी देन है। जितना गहराई से जनदर्शन ने जीवों के भेद-प्रभेदों पर चिन्तन किया है, उतना सूक्ष्म चिन्तन अन्य पौर्वात्य और पाश्चात्य दार्शनिक नहीं कर सके हैं। वेदों में पृथ्वी देवता, मापो देवता आदि के द्वारा यह कहा गया है कि वे एक-एक हैं, पर जनदर्शन ने पृथ्वी आदि में अनेक जीव माने हैं, यहाँ तक कि मिट्टी के कण, जल की बंद और अग्नि की चिनगारी में असंख्य जीव होते हैं। उनका एक शरीर दश्य नहीं होता, अनेक शरीरों का पिण्ड ही हमें दिखलाई देता है। 300 जीव का मुख्य गुण चेतना है। चेतना सभी जीवों में उपलब्ध है। जिसमें चेतना है वह जीव है / फिर भले ही वह सिद्ध हो या सांसारिक। चेतना सिद्ध में भी है और संसारी जीव में भी है। चेतना की दृष्टि से सिद्ध और संसारी जीव में भेद नहीं है। आगमिक दृष्टि से जीव के बोधरूप व्यापार को चेतना कहा है। वह बोधरूप व्यापार सामान्य और विशेष रूप से दो प्रकार का है। जब चेतना वस्तु के विशेष धर्मों को गौण कर सामान्य धर्म को ग्रहण करती है तब दर्शनचेतना कहलाती है और जो चेतना सामान्य धर्मों को गौण करके वस्तु के विशेष धर्मों को मुख्य रूप से ग्रहण करती है, वह ज्ञानचेतना कहलाती है। ज्ञानचेतना ही विशेष बोधरूप व्यापार कहलाती है। एक ही चेतना कभी सामान्य रूप में तो कभी विशेषात्मक होती है।। दार्शनिकों ने चेतना के ज्ञानचेतना, कर्मचेतना और कर्मफलनेतना-ये तीन प्रकार भी माने हैं। किसी भी वस्तु-तत्व को जानने के लिए चेतना का जो ज्ञानरूप परिणाम है, वह ज्ञानचेतना है, कषाय के उदय से क्रोध, मान, माया, लोभ रूप जो परिणाम है, वह कर्मचेतना है। शुभ और अशुभ कर्म के उदय से जो सुख और दुःखरूप परिणाम होता है, वह कर्मफलचेतना है। दार्शनिकों ने इन तीनों प्रकार की चेतनाओं को अन्य रूप से कहा है। प्रागमकारों ने संसारी जीवों की दष्टि से अस और स्थावर-ये दो भेद किये हैं। जिस जीव को बस नामकर्म का उदय है वह त्रस जीव है और जिस जीव को स्थावर नामकर्म का उदय है वह स्थावर जीव है। गतित्रस और लब्धित्रस ये त्रस के दो प्रकार हैं। जिनमें स्वतन्त्र रूप से गमन करने की शक्तिविशेष हो, वह गति त्रस है और जो सुख-दुःख की इच्छा से गमन करते हैं, वे लब्धित्रस हैं। तेजस्काय और वायुकाय को गति त्रस तथा बेन्द्रिय, तेन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पंचेन्द्रिय को लब्धिवस माना गया है / इस प्रकार जैन दार्शनिकों ने बस और स्थावर शब्दों का अर्थ दो प्रकार से किया है। एक क्रिया की दृष्टि से तो दुसरा कर्म के उदय की दष्टि से। 300. (क) दशवकालिकसूत्र, अगस्त्यसिंहचूणि, पृष्ठ 74 (ख) दशवकालिकसूत्र, जिनदासचूणि, पृष्ठ 136 [84] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org