________________ के अंसख्यात प्रदेश ज्ञानावरणीय कर्म से प्राच्छन्न होते हैं, मूल 8 रुचक प्रदेश सदा ज्ञानावरणीय कर्म से अलिप्त रहते हैं। भगवतीमूत्र में भी ज्ञान के सम्बन्ध में विस्तार से विवेचन प्राप्त है। जिज्ञासु पाठक भगवतीसूत्र शतक 8. उद्देशक 2 का गहराई से अवलोकन करें / शतक 1, उद्देशक 1 में गणधर गौतम और भगवान महावीर का एक मुन्दर संवाद है, जिसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि चारित्र वर्तमान भव तक सीमित रहता है परन्तु ज्ञान इस लोक, परलोक तथा तदुभयलोक में भी रह सकता है। जैन अागमों में जहाँ ज्ञानचर्चा की गई है वहाँ प्रमाणचर्चा भी की गई है। ज्ञान को प्रामाणिकता देने के लिए सम्यक्त्व और मिथ्यात्व पर चिन्तन करते हए यह प्रतिपादित किया कि सम्यग्दर्शी का ज्ञान ज्ञान है और वही ज्ञान मिथ्यादी के लिए अज्ञान है / ज्ञान के 5 और प्रज्ञान के 3 भेद प्रतिपादित किए गए हैं। प्रागमसाहित्य में नैयायिकदर्शन की तरह कहीं पर चार प्रमाणों का उल्लेख है तो कहीं तीन प्रमाणों का उल्लेख है। स्थानांगसूत्र में प्रमाण शब्द के स्थान पर हेतु शब्द का प्रयोग किया है / ज्ञप्ति के साधनभूत होने से प्रत्यक्ष, अनुमान प्रादि को हेतु शब्द से व्यवहत किया है / 26 3 निक्षेप दष्टि से स्थानांग में द्रव्यप्रमाण, क्षेत्रप्रमाण कालप्रमाण और भावप्रमाण ये चार भेद किये हैं। 64 स्थानांग में प्रमाण के तीन भेद भी प्राप्त होते हैं। वहां पर प्रमाण के स्थान पर व्यवसाय' शब्द का प्रयोग हुआ। व्यवसाय का अर्थ 'निश्चय' है / व्यवसाय के प्रत्यक्ष, प्रत्ययिक और आनुगामिक ये तीन प्रकार हैं। 5 जैन आगमसाहित्य में ही नहीं, अन्य दर्शनों में भी प्रमाण के तीन और चार प्रकार प्रतिपादित किये गये हैं। सांख्यदर्शन में तीन प्रमाणों का निरूपण है, तो न्यायदर्शन में चार प्रमाण प्रतिपादित हैं। अनुयोगद्वारसूत्र में प्रमाण के सम्बन्ध में बहुत ही विस्तार के साथ चर्चा है। भारतीय दार्शनिकों में प्रमाण की संख्या के सम्बन्ध में एक मत नहीं रहा है। चार्वाकदर्शन केवल इन्द्रिय प्रत्यक्ष को ही प्रमाण मानता है / वैशेषिकदर्शन प्रत्यक्ष और अनुमान इन दो को प्रमाण मानता है। सांख्यदर्शन में प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द ये तीन प्रमाण माने गये हैं। न्यायदर्शन ने प्रत्यक्ष , अनुमान, उपमान और शब्द ये चार प्रमाण माने हैं। प्रभाकरमीमांसक ने प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द और अर्थापत्ति ये पांच प्रमाण माने हैं। भादृमीमांसादर्शन ने प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, अर्थापत्ति और प्रभाव, ये छह प्रमाण माने हैं। बौद्धदर्शन में प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो प्रमाण माने हैं। जैन दार्शनिक विज्ञों ने प्रमाण के तीन और भेद माने हैं। आचार्य सिद्धसेन ने प्रत्यक्ष, अनुमान और ग्रागम ये तीन प्रमाण माने हैं२६ तो उमास्वाति ने, वादी देवसुरि१८ ने और प्राचार्य हेमचन्द्र 20 ने प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो प्रमाण स्वीकार किये हैं। मगर यह वस्तुतः विवक्षाभेद है। इसमें मौलिक अन्तर नहीं है। 293. स्थानांग 4/335 294. स्थानांग 4/321 295. स्थानांग 3/185 216. न्यायावतार 28 297. तत्त्वार्थ सूत्र 298. प्रमाणनयतत्त्वालोक 2/91 299. प्रमाणमीमांसा 1/9,10 [ 83 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org