________________ कितने ही पालोचक जैनदर्शन की आलोचना करते हुए लिखते हैं कि जैनदर्शन जीवन से इकरार नहीं अपितु इनकार करता है। पर उनकी यह पालोचना भ्रान्त है। जैनदर्शन ने जीवन के मिथ्यामोह से इनकार किया है। जो जीवन स्व और पर की साधना में उपयोगी है वही जीवन सर्वतोभावेन संरक्षणीय है। क्योंकि जीवन का लक्ष्य ज्ञान, दर्शन और चारित्र की सिद्धि करना है। यदि मरण से भी ज्ञानादि की सिद्धि है तो वह शिरसा श्लाघनीय है। इस प्रकार प्रस्तुत कथानक में गम्भीर विषय की चर्चा प्रस्तुत की गई है। आर्य स्कन्दक जिज्ञासा का समाधान होने पर भगवान महावीर के पास आईती दीक्षा ग्रहण कर समाधिमरण प्राप्त कर अच्युत कल्प में देव बने और वहाँ से वे महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेकर मुक्त होंगे / ईशानेन्द्र भगवतीसूत्र, शतक 3, उद्देशक 1 में देवराज ईशानेन्द्र का मधुर प्रसंग पाया है। ईशानेन्द्र ने अवधिज्ञान से जाना कि भगवान् महावीर प्रभु राजगह में पधारे हैं। वह भगवान के दर्शन के लिये पहुंचा और उसने 32 प्रकार के नाटक किये। गणधर गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की कि यह दिव्य देवऋद्धि ईशानेन्द्र को किस प्रकार प्राप्त हुई है ? भगवान् ने समाधान किया कि यह पूर्वभव में ताम्रलिप्ति नगर में तामली मौर्यवंशी गृहस्थ था / उसने प्राणामा नाम की दीक्षा ग्रहण की और निरन्तर छठ-छठ तप के साथ सूर्य के सामने आतापना ग्रहण करता और पारणे के दिन लकड़ी का पात्र लेकर पके हुए चावल लाता है और 21 बार उन्हें धोकर ग्रहण करता। वह सभी को नमस्कार करता / उसकी चिरकाल तक यह साधना चलती रही। अन्त में दो महीने का अनशन किया / जब उसका अनशन व्रत चल रहा था तब असुरकुमार देवों ने विविध रूप बनाकर उसे अपना इन्द्र बनने का संकल्प करने के लिये प्रेरित किया पर वह तपस्वी विचलित नहीं हुमा और वहाँ से मरकर ईशानेन्द्र हुया है। प्राचीन ग्रन्थकारों ने लिखा है कि तामली तापस ने साठ हजार वर्ष तक तप की आराधना की थी। पर वह साधना विवेक के आलोक में नहीं हई थी। यदि उतनी साधना एक विवेकी साधक करता तो उतनी साधना से सात जीव मोक्ष में चले जाते। पर वह ईशानेन्द्र ही हुआ। प्रस्तुत प्रकरण में 32 प्रकार के नाटय बताये हैं। नाटक के सम्बन्ध में हम राजप्रश्नीयसूत्र की प्रस्तावना में विस्तार से लिख चुके हैं। चमरेन्द्र भगवतीसूत्र, शतक 3, उद्देशक 2 में असुरराज चमरेन्द्र का उल्लेख है जो भगवान महावीर की शरण लेकर प्रथम सौधर्म देवलोक में पहुँचा और शकेन्द्र ने उस पर बज का प्रयोग किया। यह दस पाश्चयों में एक प्राश्चर्य रहा। शिवराजषि भगवतीसूत्र, शतक 11, उद्देशक 9 में शिवराजर्षि का वर्णन है। वे जीवन के उषाकाल में दिशाप्रोक्षक तापस बने थे। निरन्तर षष्ठ भक्त यानी बेले की तपस्या करते थे। उनके तापस जीवन की आचारसंहिता का निरूपण प्रस्तुत आगम में विस्तार के साथ हुआ है। दिक्चक्रवाल तप से शिवराजर्षि को विभंगज्ञान हुप्रा जिससे वे सात द्वीप पौर सात समुद्रों को निहारने लगे। उन्होंने यह उद्घोषणा की कि सात समुद्र और सात द्वीप ही इस विराट् विश्व में हैं। उसकी यह चर्चा सर्वत्र प्रसारित हो गई। गणधर गौतम ने भगवान महावीर से जिज्ञासा 213. जैन, बौद्ध और गीता के प्राचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन II, पृ. 440-41 [63 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org