________________ कर प्रसन्नतापूर्वक वह मरण स्वीकार किया जाता है। मरण काल में साधक चाहे कितने ही कष्ट पाएँ, उनको समभावपूर्वक सहन करता है / यह पण्डितमरण अात्महत्या नहीं है पर मृत्यु को वरण करने की श्रेष्ठ कला है। संयुत्तनिकाय में असाध्य रोग से संत्रस्त भिक्ष वक्कलि कुलपुत्र 20 3 व भिक्षु छन्न 20 ने आत्महत्या की। तथागत बुद्ध ने उन दोनों भिक्षों को निर्दोष कहा और यह बताया कि दोनों भिक्ष परिनिर्वाण को प्राप्त हए हैं। जापान में रहने वाले बौद्धों में हरीकरी की प्रथा आज भी प्रचलित है। पर जैनपरम्परा और बौद्ध परम्परा के मृत्यु-वरण में अन्तर है। बौद्धपरम्परा में शस्त्रवध से तत्काल या उसी क्षण मृत्यु प्राप्त करना श्रेष्ठ माना है, जबकि जैनपरम्परा में इस प्रकार मृत्यु को वरण करना उचित नहीं माना गया है। वैदिकपरम्परा में भी स्वेच्छापूर्वक मृत्युवरण को सर्वश्रेष्ठ माना है। मनुस्मृति,२०५ याज्ञवल्क्यस्मृति,२०६ गौतम स्मृति,२०७ वशिष्ठधर्मसूत्र 208 और पापस्तम्बसूत्र 208 आदि के अनुसार प्रायश्चित्त के निमित्त मृत्यू को वरण करना चाहिए / महाभारत के अनुशासनपर्व,२७० वनपर्व,"" और मत्स्यपुराण 12 श्रादि के अनुसार अग्निप्रवेश, जलप्रवेश, गिरिपतन, विषप्रयोग या अनशन आदि के द्वारा देहत्याग किया जाता है तो ब्रह्मलोक प्राप्त होता है। वैदिक परम्परा ने जो विविध साधन मृत्युवरण के बताये हैं वहाँ पर जैन परम्परा में उपवास आदि से ही मृत्यु को वरण करना श्रेयस्कर माना है। ब्रह्मचर्य आदि की सुरक्षा के लिये तात्कालिक मृत्युवरण के कुछ प्रसंग जैन साहित्य में आये हैं, पर मुख्य रूप से इस प्रकार के मरण को प्रात्महत्या ही माना है और उसकी आलोचना भी जैन मनीषियों ने यत्र-तत्र की है / जैन परम्परा में जीवन की आशा और मृत्यु की प्राशा दोनों को ही अनुचित माना है। समाधिमरण में न तो मरण की आकांक्षा होती है और न आत्महत्या ही होती है। प्रात्महत्या या तो क्रोध के कारण या सम्मान अथवा अपने हित पर गहरा आघात लगता है तब व्यक्ति निराशा के झूले में झूलने लगता है और वह आत्महत्या के लिये प्रस्तुत होता है। समाधिमरण में आहारादि के त्याग से देह-पोषण का त्याग किया जाता है। मृत्यु उसका परिणाम है पर उसमें मृत्यु की आकांक्षा नहीं है। जिस प्रकार फोड़े की चीर-फाड़ से बेदना अवश्य होती है पर वेदना की आकांक्षा नहीं होती। समाधिमरण की क्रिया मरण के लिए न होकर उसके प्रतीकार के लिए है, जैसे व्रण का चीरना वेदना के लिए न होकर वेदना के प्रतीकार के लिए है। यही समाधिमरण और प्रात्महत्या में अन्तर है। समाधिमरण में भगोड़े की तरह भागना नहीं है अपितु संयम की ओर अग्रसर होना है। आत्महत्या में जीवन से भय होता है पर समाधिमरण में मृत्यु से भय नहीं होता। प्रात्महत्या प्रसमय में मृत्यु का आमंत्रण है किन्तु समाधिमरण में मृत्यु के उपस्थित होने पर उसका सहर्ष स्वागत है / आत्महत्या के पीछे भय या कामना रही हुई होती है जबकि समाधिमरण में भय और कामना का अभाव रहता है। 203. संयुत्तनिकाय, 2112 / 4 / 5 204. संयुतनिकाय, 3412 / 414 205. मनुस्मृति, 11/90-91 206. याज्ञवल्क्यस्मृति, 3/253 207. गोतमस्मृति, 23/1 208. वशिष्ठ धर्मसूत्र 20/22, 13/14 209. आपस्तम्ब सूत्र, 119 / 25 / 1-3, 6 210. महाभारत, अनुशासनपर्व, 25 / 62-64 211. महाभारत, वनपर्व, 8583 212. मत्स्यपुराण, 186 / 34135 [2] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org