________________ जयंती -इसका क्या कारण है ? महावीर-जो जीव अधर्मी हैं, सानुगामी हैं, अमिष्ठ हैं, अधर्माख्यायी हैं, अधर्मप्रलोकी हैं, अधर्मप्ररञ्जन हैं, वे सोते रहें यही अच्छा है। क्योंकि जब वे सोते होंगे तो अनेक जीवों को पीड़ा नहीं देंगे। वे स्व, पर प्रोर उभय को अधार्मिक क्रिया में नहीं लगायेंगे। इसलिये उनका सोना श्रेष्ठ है / पर जो जीब धार्मिक हैं, धर्मानुगामी हैं, यावत्धामिक वत्ति वाले हैं, उनका तो जागना ही अच्छा है। क्योंकि वे अनेक जीवों को सुख देते हैं। वे स्व, पर और उभय को धार्मिक अनुष्ठानों में लगाते हैं। प्रतः उनका जागना अच्छा है। जयंती -भन्ते ! बलवान् होना अच्छा या दुर्बल होना ? महावीर---जयंती ! कुछ जीवों का बलवान् होना अच्छा है तो कुछ जीवों का दुर्बल होना अच्छा है / जयंती ---इसका क्या कारण है ? महावीर-जो अधामिक हैं या अधार्मिक वृत्ति वाले हैं, उनका दुर्बल होना अच्छा है। वे यदि बलवान होंगे तो अनेक जीवों को दुःख देंगे। जो धार्मिक हैं, धार्मिक वृत्ति वाले हैं, उनका सबल होना अच्छा है। वे सबल होकर अनेक जीवों को सुख पहुँचायेंगे / इस प्रकार अनेक प्रश्नों के उत्तर विभाग करके भगवान् ने प्रदान किये। विभज्यवाद का मूल प्राधार विभाग करके उत्तर देना है। दो विरोधी बातों का स्वीकार एक सामान्य में करके उसी एक को विभक्त करके दोनों विभागों में दो विरोधी धर्मों को संगत बताना यह विभज्यवाद का फलितार्थ है। यहाँ यह भी स्मरण रखना है कि दो विरोधी धर्म एक काल में किसी एक व्यक्ति के नहीं बल्कि भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के हैं। भगवान् महावीर ने विभज्यवाद का क्षेत्र बहुत ही व्यापक बनाया। उन्होंने अनेक विरोधी धर्मों को एक ही काल में और एक ही व्यक्ति में अपेक्षाभेद से घटाया जिससे विभज्यवाद आगे चल कर अनेकान्तवाद के रूप में विश्रुत हुआ। अनेकान्तवाद विभज्यवाद का विकसित रूप है। विभज्यवाद का मूलाधार है, जो विशेष व्यक्ति हों उन्हीं में, तिर्यक् सामान्य की अपेक्षा से विरोधी धर्म को स्वीकार करना। अनेकान्तवाद का मूलाधार है, तिर्यक और ऊर्वता दोनों प्रकार के सामान्य पर्यायों में विरोधी धर्मों को अपेक्षाभेद से स्वीकार करना / उवायन राजा भगवतीसूत्र शतक 13 उद्देशक 6 में राजा उदायन का वर्णन है / उदायन ने भगवान महावीर के पास आहती दीक्षा ग्रहण की / दीक्षा ग्रहण करने से पूर्व उसने अपने पुत्र अभीचि कुमार को राज्य इसलिये नहीं दिया कि यह राज्य के मोह में मुग्ध होकर नरक प्रादि गतियों में दारुण वेदना का अनुभव करेगा। उसने अपने भाणेज केशी कुमार को राज्य दिया। अभीचि कुमार के अन्तर्मानस में पिता के इस कृत्य पर ग्लानि हुई। उसने अपना अपमान समझा। वह राज्य छोड़कर चल दिया। राजा उदायन तप की माराधना कर मोक्ष गये। पर अभीचि कुमार श्रावक बनने पर भी शल्य से मुक्त नहीं हो सका, जिससे वह असुर कुमार बना। राजा उदायन का जीवनप्रसंग पावश्यकणि आदि में विशेष रूप से आया है। उन्होंने दीक्षा ग्रहण की और उत्कृष्ट तप की आराधना करने से, रूक्ष और नीरस आहार ग्रहण करने से शरीर में व्याधि उत्पन्न हई। वैद्य के परामर्श से उपचार हेतु वीतभय मगर के बज में रहे, जहाँ दही सहज में उपलब्ध था / दुष्ट मन्त्री ने राजा केशी को बताया कि भिक्षुजीबन से पीड़ित होकर ये राज्य के लोभ से यहाँ पाये हैं और आपका राज्य छीन लेंगे / राज्यलोभी केशी राजा ने एक [ 69] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org