________________ ग्वाले को दही में विष मिलाकर देने हेतु कहा। उसने वैसा ही किया। नगररक्षक देवों ने कुपित होकर धूल की भयंकर वर्षा की जिससे सारा नगर धूल के नीचे दब गया।२४८ राजा उदायन के सम्बन्ध में हमने विस्तार से धर्मकथानुयोग की प्रस्तावना में लिखा है, अतः जिज्ञासु पाठकगण उसका अवलोकन करें। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय : चिन्तन भगवती शतक 18 उद्देशक 7 में मद्रुक श्रमणोपासक का वर्णन है। वह राजगह नगर का निवासी था। राजगह के बाहर गुणशील नामक एक चैत्य था / उसके सन्निकट ही कालोदायी, शैलोदायी, सेवालोदायी, उदय, नामोदय, नर्मोदय, अत्यपालक, शैलपालक, शंखपालक और सुहस्ती, अन्यतोथिक सदगृहस्थ रहते थे। वे परस्पर यह चर्चा करने लगे कि भगवान् महावीर धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, अाकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय इन पंचास्तिकायों में एक को जीव और शेष को अजीव मानते हैं। पुदगलास्तिकाय को रूपी और शेष को अरूपी मानते हैं। क्या इस प्रकार का कथन उचित है ? यह बात उन्होंने मन कसे कही। मद्रक ने कहाजो कोई बस्तु कार्य करती है, आप उसे कार्य के द्वारा जानते हैं / यदि वह वस्तु कार्य न करे तो आप उसे नहीं जान सकते / ठुमक-ठुमक कर पवन चल रहा है पर आप उसके रूप को नहीं देख सकते। गन्धयुक्त पुद्गल की सौरभ हमें आती है पर हम उस गन्ध को देखते कहाँ है ? अरणि की लकड़ी में अग्नि होने पर भी हम नहीं देखते / समुद्र के परले किनारे पदार्थ पड़े हुए हैं पर हम उन्हें देख नहीं पाते / यदि उन वस्तुओं को कोई नहीं देखता है तो वस्तु का प्रभाव नहीं हो जाता, वैसे ही आप जिन वस्तुओं को नहीं देखते, उनका अस्तित्व नहीं है, यह कहना उचित नहीं है। मद्रुक के अकाट्य तकौ से अन्यतीथिक विस्मित हुए। मद्रक ने भी भगवान के चरणों में पहुँचकर श्रमणधर्म को स्वीकार किया और अपने जीवन को पावन बनाया। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि का निरूपण भारत के अन्य दार्शनिक साहित्य में नहीं हुआ है। यह जनदर्शन की मौलिक देन है। जहाँ अन्य दर्शनों में धर्म और अधर्म शब्द का प्रयोग शुभ और अशुभ प्रवृत्तियों के अर्थ में किया गया है, वहाँ जैनदर्शन में बह गतिसहायक तत्त्व और स्थितिसहायक तत्त्व के अर्थ में भी व्यवहृत है / धर्म एक द्रव्य है। वह समग्र लोक में व्याप्त है, शाश्वत है। वर्ण, गंध रस और स्पर्श से रहित है। वह जीव और पुदगल की गति में सहायक है। यहाँ तक कि जीवों का प्रागमन, गमन, वार्तालाप, उन्मेष, मानसिक, वाचिक और कायिक आदि जितनी भी स्पन्दनात्मक प्रवत्तियाँ हैं, वे धर्मास्तिकाय से ही होती हैं। उसके असंख्य प्रदेश हैं / वह नित्य व अनित्य है, अवस्थित है और अरूपी है। नित्य का अर्थ तद्भावाव्यय है, गति क्रिया में सहायता देने रूप भाव से कदापि च्युत न होना धर्म का तद्भावाव्यय कहलाता है। अवस्थिति का अर्थ हैजितने असंख्य प्रदेश हैं, उन प्रदेशों का कम और ज्यादा न होना किन्तु हमेशा असंख्यात ही बने रहना / वर्ण, गंध, रस आदि का प्रभाव होने से धर्मास्तिकाय अरूपी है। धर्मास्तिकाय पूरा एक द्रव्य है। वह जीव प्रादि के समान पृथक् रूप से नहीं रहता, अपितु अखण्ड द्रव्य के रूप में रहता है एवं सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है / लोक में ऐसा कोई भी स्थान नहीं जहाँ पर धर्म द्रव्य का प्रभाव हो। सम्पूर्ण लोकव्यापी होने से पर जाने की आवश्यकता नहीं होती / गति का तात्पर्य है-एक स्थान से दूसरे स्थान में जाने की क्रिया। धर्मास्तिकाय गति क्रिया में सहायक है। जिस प्रकार मछली स्वयं तैरती है, पर उसकी गति में पानी सहायक होता है। तैरने की शक्ति 248. प्रावश्यकचूर्णि, पृष्ठ 537 से 538 [70 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org