________________ नपुंसक का अभाव हो, ऐसे निर्दोष स्थान पर प्राज्ञा ग्रहण कर विहार करता हूँ, यह मेरा प्रासुक (निर्दोष) विहार है। सोमिल ने पुन: पूछा-'सरिसवया' भक्ष्य हैं या अभक्ष ? भगवान महावीर ने समाधान दिया-सरिसवया शब्द के दो अर्थ हैं-सदृश वयस समवयस्क तथा दूसरा सरसों। सवय के तीन प्रकार हैं-एक साथ जन्मे हुए, एक साथ पालित-पोषित हुए और एक साथ क्रीड़ा किए हुए / ये तीनों श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभभ्य हैं और धान्य सरिसव भी दो प्रकार के हैं-शस्त्रपरिणत और अशरबपरिणत, शस्त्रपरिणत भी दो प्रकार के हैं ---एषणीय और अनेषणीय। अनेषणीय अभक्ष्य हैं। एपणीय भी याचित और अयाचित रूप से दो प्रकार के हैं। याचित भक्ष्य हैं और अयाचित अभक्ष्य हैं। सोमिल ने पुन: शब्दजाल फैलाते हए कहा--'मास' भक्ष्य है या अभक्ष्य है ? भगवान् ने समाधान की भाषा में कहा-मास याने महीना, और माष याने सोना-चाँदी आदि तोलने का माप। ये दोनों प्रभक्ष्य हैं और माप याती उड़द, जो शस्त्रपरिणत हों, याचित हों, वे श्रमण के लिए भक्ष्य हैं। सोमिल ने पुन: प्रछा-'कूलत्या' भक्ष्य हैं या अभक्ष्य हैं ? भगवान ने फरमाया----कुलत्था शब्द के भी दो अर्थ हैं-एक कलीन स्त्री (कुलस्था) और दूसरा अर्थ है धान्यविशेष (कूलस्थ)। जो धान्यविशेष कुलत्था हैं वह शस्त्रपरिणत एवं याचित हैं तो भक्ष्य हैं / कुलीन स्त्री अभक्ष्य है। सोमिल ने देखा कि महाबीर शब्द-जाल में फंस नहीं रहे हैं, अतः उसने एकता और अनेकता का प्रश्न उपस्थित किया कि आप एक हैं या दो हैं ? अक्षय हैं, अव्यय हैं, अवस्थित हैं, अतीत, वर्तमान और भविष्य में परिणमन के योग्य हैं ? भगवान महावीर ने एकता और अनेकता का समन्वय करते हुए अनेकान्त दृष्टि से कहा--सोमिल ! मैं द्रव्यदष्टि से एक है। ज्ञान और दर्शन रूप दो पर्यायों के प्राधान्य से दो भी हैं। सोमिल ! उपयोग स्वभाव को दष्टि से मैं प्रतेक है। इस प्रकार अपेक्षा भेद से एकत्व और अनेकत्व का समन्वय कर सोमिल को विस्मित कर दिया / वह चरणों में झक पड़ा तथा श्रावक के 12 व्रतों को ग्रहण कर भगवान महावीर का अनुयायी बना। इस कथाप्रसंग से भगवान महावीर की सर्वज्ञता का स्पष्ट निदर्शन होता है। प्रागमयुग की अनेकान्त इष्टि भी इसमें स्पष्ट रूप से व्यक्त हुई है। तीसरी बात इसमें 'मास' शब्द का प्रयोग हसा है जो महीने के अर्थ में है / बह श्रावण महीने से प्रारम्भ होकर प्राषाढ़ पूणिमा में समाप्त होता है। इससे यह ज्ञात होता है कि श्रावण प्रथम मास था और आषाढ़ वर्ष का प्रन्तिम मास था। प्रस्तुत प्रसंग में 'जवनिज्ज-यापनीय' शब्द का प्रयोग हुया है। दिगम्बरपरम्परा में यापनीय नामक एक संध है जिसके प्रमुख आचार्य शाकटायन थे / मधन्य मनीषियों को इस सम्बन्ध में अन्वेषणा करनी चाहिए कि क्या यापनीय संघ का सम्बन्ध 'जवनिज्ज' से था ? पंडित वेचरदासजी दोशी ने लिखा है कि "जवनिज्ज'का यमनीय रूप अधिक अर्थयुक्त एवं संगत है, जिसका सम्बन्ध पांच यमों के साथ स्थापित होता है। यापनीय शब्द से इस प्रकार का अर्थ नहीं निकलता, यद्यपि 'जयनिज्ज' शब्द वर्तमान युग में नया और अपरिचित-सा लग रहा है पर खारवेल के शिलालेख में 'जवनिज्ज' शब्द का प्रयोग हा है जो इस शब्द की प्राचीनता और प्रचलितता को अभिव्यक्त करता है / 25. 251. जैन साहित्य का बृहत् इतिहास, भाग पहला, पृष्ठ 211 Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org