________________ करता है। मंख नाम की एक जाति थी / उस जाति के लोग पट्टक हाथ में रखकर अपनी प्राजीविका चलाते थे। जैसे प्राज डाकोत लोग शनिदेव की मूर्ति या चित्र हाथ में रख कर अपनी जीविका चलाते हैं। धम्मपद प्रतकथा,२१२ मज्झिमनिकाय3 अटकथा में मंखलि गोशालक के संबंध में प्रकाश डालते हुए उसका नामकरण किस तरह से हुआ, इस पर एक कथा दी है। उनके मतानुसार गोशालक दास था। एक वार वह तैल-पात्र लेकर अपने स्वामी के आगे-मागे चल रहा था--फिसलन की भूमि आई। स्वामी ने उसे कहा-'तात ! मा खलि तात ! मा खलि'- अरे स्खलित मत होना। पर गोशाखक स्खलित हो गया और सारा तेल जमीन पर फैल गया। स्वामी के भय से भीत बनकर वह भागने का प्रयास करने लगा। स्वामी ने उसका वस्त्र पकड़ लिया। वह उस बस्त्र को छोड़कर नंगा ही वहाँ से चल दिया / इस प्रकार दह नग्न साधु हो गया और मंखलि के नाम से विश्रुत हुआ। प्रस्तुत कथानक एक किंवदन्ती की तरह ही है और यह बहत ही उत्तरकालिक है, इसलिए ऐतिहासिक रष्टि से चिन्तनीय है। प्राचार्य पाणिनि ने मस्करी शब्द का अर्थ परिव्राजक किया है। 264 आचार्य पतञ्जलि ने पातञ्जल महाभाष्य में लिखा है-मस्करी वह साधु नहीं है जो अपने हाथ में मस्कर या बांस को लाठी लेकर चलता है। मस्करी वह है जो उपदेश देता है...-कर्म मत करो, शान्ति का मार्ग ही श्रेयस्कर है।६५ प्राचार्य पाणिनि और आचार्य पतञ्जलि के अनुसार गोशालक परिव्राजक था और कर्म मत करो' इस मत की संस्थापना करने वाली संस्था का संस्थापक था। जनसाहित्य की दृष्टि से वह मंखली का पुत्र था और गोशाला में उसका जन्म हुमा था। इस तथ्य की प्रामाणिकता पाणिनि 66 और आचार्य बुद्धघोष 167 के द्वारा भी होती है। जैन आगम में गोशालक को आजीविक लिखा है तो त्रिपिटक साहित्य में ग्राजीवक लिखा है / प्राजीविक तथा प्राजीवक इन दोनों शब्दों का अभिप्राय है प्राजीविका के लिए तपश्चर्या श्रादि करने वाला। गोशालक मत की दृष्टि से इस शब्द का क्या अर्थ उस समय व्यवहृत था, उसको जानने के लिए हमारे पास कोई अन्य नहीं है / जैन और बौद्ध साहित्य की दृष्टि से गोशालक के भिक्षाचरी आदि के नियम कठोर थे। जैन और बौद्ध दोनों परम्पराओं के ग्रन्थों के आधार से यह सिद्ध है कि गोशालक नग्न रहता था तथा उसकी भिक्षाचरी कठिन थी। प्राजीविक परम्परा के साधु कुछ एक दो घरों के अन्तर से, कुछ एक तीन घरों के अन्तर से यावत् सात घरों के अन्तर से भिक्षा ग्रहण करते थे। 266 भगवतीसूत्र शतक 8 उद्देशक 5 में आजीविक उपासकों के आचार-विचार का वर्णन इस प्रकार प्राप्त है—वे गोशालक को अरिहन्त मानते हैं। माता-पिता की शुश्रूषा करते हैं / गूलर, बड, बोर, अजीर, पिलखु इन पांच प्रकार के फलों का भक्षण नहीं करते / प्याज, लहसुन 262. धम्मपद अट्टकथा, प्राचार्य बुद्धघोष 1-143 263. मज्झिमनिकाय अटकथा, प्राचार्य बृद्धघोष 1-422 264. मस्करं मस्करिणी वेण परिव्राजकयोः। -पाणिनिव्याकरण 6-1-154 265. न वै मस्करोऽस्यास्तीति मस्करी परिव्राजकः / कि तहि / मा कृत कर्माणि मा कृत कर्माणि शान्तिर्व: श्रेयसीत्याहतो मस्करी परिव्राजक:। --पातञ्जलमहाभाष्य 6-1-154 266. गोशालाया जात: गौशाल / 4.3-35 267. सुमगल विलासनी दोनिकाय अटकथा, पृष्ठ 143-144 268. महासच्चक सुत्त 1-4-6 269. अभिधानराजेन्द्र कोष, भाग 2, पृष्ठ 116, [77] -- - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org