________________ प्रस्तुत की। भगवान महावीर ने कहा-असंख्यात द्वीप और असंख्यात समुद्र हैं। जब भगवान महावीर की यह बात शिवराजषि ने सुनी तो विस्मित हुए। उनका अशान का पर्दा हट गया। उन्होंने भगवान महावीर के पास पाहतो दीक्षा ग्रहण कर अपने जीवन को महान् बनाया / प्रस्तुत कथानक में सात द्वीप और सात समुद्र की मान्यता का उल्लेख हुआ है। यह मान्यता उस युग में अनेक व्यक्तियों की थी। इस मिथ्या मान्यता का निरसन भगवान महावीर ने किया और यह स्थापना की कि असंख्यात द्वीप और असंख्यात समुद्र हैं और अन्तिम समुद्र का नाम स्वयंभूरमण समुद्र है। स्वयंभूरमण समुद्र का अन्तिम छोर प्रलोक के प्रारम्भ तक है। यहाँ पर यह स्मरण रखना चाहिए कि स्कन्दक परिव्राजक, पुद्गल परिव्राजक और शिवराजर्षि ये तीनों बैदिकपरम्परा के परिव्राजक थे उन्होंने श्रमण परम्परा को ग्रहण किया। साथ ही उस युग में जो ज्वलंत प्रश्न जनमानस में घूम रहे थे, उन प्रश्नों को सर्वज्ञ सर्वदर्शी महावीर ने स्पष्ट समाधान कर दार्शनिक जगत को एक नई दृष्टि प्रदान की। कालद्रव्य : एक चिन्तन ___भगवतीसूत्र, शतक 11, उद्देशक 11 में सुदर्शन सेठ का वर्णन है / वह वाणिज्यग्राम का रहने वाला था। उसने भगवान महावीर से पूछा कि काल कितने प्रकार का है ? भगवान् ने कहा कि काल के चार प्रकार हैं-प्रमाणकाल, यथायुरनिवृत्तिकाल, मरणकाल और श्रद्धाकाल / इन चार प्रकारों में प्रमाण काल के दिवसप्रमाण काल और रात्रिप्रमाण काल ये दो प्रकार हैं। इस काल में भी दक्षिणायन और उत्तरायन होने पर दिन-रात्रि का समय कम-ज्यादा होता रहता है। दूसरा काल है, यथायुरनिवृत्ति काल अर्थात् नरक, मनुष्य, देव, और तिर्यञ्च, ने जैसा प्रायुष्य बांधा है उसका पालन करना। तीसरा काल है-मरण काल। शरीर से जोव का पृथक होता मरणकाल है। चतुर्थ काल है-प्रद्धाकाल / वह एक समय से लेकर शोषप्रहेलिका तक संख्यात काल है और उसके बाद जिसको बताने के लिये उपमा आदि का प्रयोग किया जाय जैसे-पल्योपम, सागरोपम आदि वह असंख्यात काल है। जिसको उपमा के द्वारा भी न कहा जा सके, वह अनन्त है। ___ काल के सम्बन्ध में जैनसाहित्य में विस्तार से विवेचन है। वहाँ पर विभिन्न नयापेक्षया दो मत हैं। एक मत के अनुसार काल एक स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है। काल जीव और अजीव द्रव्य का पर्याय-प्रवाह है / इस दृष्टि से जीव और अजीव द्रव्य का पर्यायपरिणमन ही उपचार से काल कहलाता है। इसलिये जीव और अजीव द्रव्य को ही काल द्रव्य जानना चाहिये। द्वितीय मतानुसार जीव और पुद्गल जिस प्रकार स्वतन्त्र द्रव्य हैं, वैसे ही काल भी एक स्वतन्त्र द्रव्य है। भगवती..१४ उत्तराध्ययन,२१५ जीवाजीवाभियम,२१६ प्रज्ञापना.२१७ आदि में काल सम्बन्धी दोनों मान्यताओं का उल्लेख है। उसके पश्चात आचार्य उमास्वाति,२१८ सिद्धसेन दिवाकर,२१६ जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण,२२० हरिभद्रसूरि, 22" प्राचार्य हेमचन्द्र, 222 उपाध्याय यशोविजय जी,२२३ विनय२१४. भगवती 25 / 4 / 734 215. उत्तराध्ययन, 2817-8 216. जीवाभिगम, 217. प्रज्ञापना पद 1, सूत्र 3 218. तत्त्वार्थसूत्र 5 / 38-39 देखें भाष्य व्याख्या सिद्धसेन कृत 219. द्वात्रिशिका 220. विशेषावश्यकभाष्य 126 और 2068 221. धर्मसंग्रहणी गाथा 32, मलयगिरि टीका 222. योगशास्त्र 223. द्रव्यगुणपर्याय रास, देखें प्रकरण रत्नाकर भा. 1, गा. 10 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org