________________ द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से लोक चार प्रकार का है / द्रव्यं की अपेक्षा वह एक और सान्त है। क्षेत्र की अपेक्षा असंख्य कोटाकोटि योजन आयाम-विष्कम्भ वाला है। इसकी परिधि असंख्य कोटा-कोटि योजन है, इसका अन्त है। काल की अपेक्षा यह किसी दिन नहीं था ऐसा नहीं है, किसी दिन नहीं रहेगा ऐसा भी नहीं है / वह तीनों कालों में रहेगा और इसका अन्त नहीं है / भाव को अपेक्षा यह अनन्त वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श पर्यव रूप है। अनन्त संस्थान पर्यव, अनन्त गुरुलघु पर्यव और अनन्त अगुरुलघु पर्यव रूप है। द्रव्य और क्षेत्र को अपेक्षा लोक सान्त है, काल और भाव की अपेक्षा वह अनन्त है। इस प्रकार लोक सान्त है और अनन्त भी। जीव के सम्बन्ध में भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से चिन्तन किया जाय तो द्रव्य की दृष्टि से जीव एक और सान्त है, क्षेत्र की दृष्टि से वह असंख्यात प्रदेशी और सान्त है। काल की दृष्टि से वह अतीत में था, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा अत: नित्य है, उसका कभी अन्त नहीं। भाव की दृष्टि से वह अनन्त ज्ञान पर्यव रूप है, अनन्त दर्शन पर्यव रूप है यायत् अनन्त अगुरुलधु पर्यव रूप है। इसका अन्त नहीं है / इस प्रकार द्रव्य और क्षेत्र की दृष्टि से जीव अन्तयुक्त है। काल और भाव की दृष्टि से अन्तरहित है / मोक्ष के सम्बन्ध में भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से जानना होगा। द्रव्य की दृष्टि से मोक्ष एक है और सान्त है / क्षेत्र की दृष्टि से पैतालीस लाख योजन आयाम-विष्कम्भ वाला है और इसकी परिधि एक करोड़ बयालीस लाख तीस हजार दो सौ उनपचास योजन से कुछ अधिक है। इसका अन्त है। काल की दृष्टि से यह नहीं कहा जा सकता कि किसी दिन मोक्ष नहीं था, नहीं है, नहीं रहेगा। भाव की अपेक्षा से यह अन्तरहित है / द्रव्य और क्षेत्र को अपेक्षा से मोक्ष अन्तयुक्त है तथा काल और भाव की अपेक्षा से अन्तरहित है। इसी तरह सिद्ध अन्तयुक्त है या अन्तरहित है ? इसके उत्तर हैं-द्रव्य की रष्टि से सिद्ध एक है और अन्तयुक्त है / क्षेत्र की दृष्टि से सिद्ध असंख्य प्रदेश-अवगाढ होने पर भी अन्तयुक्त है। काल की दृष्टि से सिद्ध की आदि तो है पर अन्त नहीं है। भाव की दृष्टि से सिद्ध ज्ञानदर्शन पर्यव रूप है और उसका अन्त नहीं है। इसी तरह भगवान् महावीर ने मरण के भी दो प्रकार बताये-१. बालमरण और 2. पण्डितमरण / बालमरण के बारह प्रकार हैं। बालमरण से मर कर जीव चतुर्गत्यात्मक संसार की अभिवृद्धि करता है और पण्डितमरण से मर कर जीव दीर्घ संसार को सीमित कर देते हैं। इन प्रश्नों का विस्तार से उत्तर सुनकर आर्य स्कन्दक अत्यन्त आह्लादित हुए और उन्होंने भगवान् महावीर के पास आई ती दीक्षा ग्रहण की। जब हम महावीरयुग का अध्ययन करते हैं तो ज्ञात होता है कि उस युग में इस प्रकार के प्रश्न दार्शनिकों के मस्तिष्क को झकझोर रहे थे और वे यथार्थ समाधान पाने के लिये मूर्धन्य मनीषियों के पास पहुँचते थे / तथागत बुद्ध के पास भी इस प्रकार के प्रश्न लेकर अनेक जिज्ञासु पहुँचते रहे, पर तथागत बुद्ध उन प्रश्नों को अव्याकृत कहकर टालते रहते थे। मज्झिमनिकाय'" में जिन प्रश्नों को तथागत ने अन्याकृत कहा था, वे ये हैं 1. क्या लोक शाश्वत है ? 2. क्या लोक प्रशाश्वत है ? 3. क्या लोक अन्तमान है ? 4. क्या लोक अनन्त है? 5. क्या जीव और शरीर एक है ? 6. क्या जीव और शरीर भिन्न है ? 7. क्या मरने के बाद तथागत नहीं होते ? 8. क्या मरने के बाद तथागत होते भी हैं और नहीं भी होते ? 9. क्या मरने के बाद तथागत न होते हैं और न नहीं होते हैं ? , इन प्रश्नों के उत्तर में विधान के रूप में बुद्ध ने कुछ भी नहीं कहा है। उनके मन में सम्भवतः यह 199. मझिमनिकाय, चुलमालुंक्यसुत्त, 63 [ 59] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org