________________ भगवतीसूत्र में जहाँ साधना के सम्बन्ध में गम्भीर चिन्तन हया है, उसके विविध भेद-प्रभेद निरूपित हैं; वहाँ पर धर्मकथाओं का भी उपयोग हुग्रा है। विविध व्यक्तियों के पवित्र चरित्र की विभिन्न गाथाएँ उकित हैं / भगवान् महावीर के युग में श्रावस्ती नगरी के सन्निकट कृतंगला नामक एक नगर था, जिसे कयंगला भी कहा गया है / बौद्धसाहित्य के आधार से कितने ही विज्ञ संथाल जिले में अबस्थित कंकजोल को ही कतंगला (कयंगला) मानते हैं। मुनिश्री इन्द्रविजयजी का मन्तब्य है कि कयंगला मध्य देश की पूर्वी सीमा पर थी जिसका उल्लेख रायपालचरित में हना है / यह स्थान राजमहल जिले में है। यह कायंगला श्रावस्ती की कयंगला से पृथक है।'८६ भगवान महावीर के युग में परिव्राजकों की संख्या विपुल मात्रा में थी। परिव्राजक ब्राह्मण धर्म के प्रतिष्ठित संन्यासी होते थे। विशिष्टधमंसूत्र में वर्णन है कि परिव्राजक को अपना सिर मुण्डित रखना चाहिये। एक वस्त्र या धर्मखण्ड धारण करना चाहिये / गायों द्वारा उखाड़ी गई पास से अपने शरीर को पाच्छादित करना चाहिये और उन्हें जमीन पर ही सोना चाहिये।'८७ परिव्राजक आवसथ (अवसह) में रहते थे तथा दर्शनशास्त्र पर और वैदिक आचारसंहिता पर शास्त्रार्थ करने हेतु भारत के विविध अञ्चलों में पहँचते थे। निशीथणि में लिखा है-परिव्राजक लोग गेरुमा वस्त्र धारण करते थे, इसलिये वे गेरु और गैरिक भी कहलाते थे। 86 परिमाजक भिक्षा से भाजीविका करते थे / ' प्रोपपातिक सूत्र,180 सूत्रकृतांगनियुक्ति, पिण्डनियुक्ति,६३ बहत्कल्पभाष्य,४३ निशीथसूत्र सभाष्य,१६४ आवश्यकचूणि,६५ धम्मपदप्रट्टकथा, 16 दीघनिकायअट्ठकथा, ललितविस्तर 8 प्रादि में परिव्राजक, तापस, संन्यासी आदि अनेक प्रकार के साधकों का विस्तृत वर्णन है। प्रार्य स्कन्दक का वर्णन भगवती के शतक 2 उद्देशक 1 में विस्तार से पाया है। वह एक महामनीषी परिव्राजक था। उससे पिंगल नामक निर्ग्रन्थ वैशाली श्रावक ने लोक सान्त है या अनन्त है, जीव सान्त है या अनन्त, सिद्धि सान्त है या अनन्त है, किस प्रकार का मरण पाकर जीव संसार को घटाता है और बढ़ाता है-- इन प्रश्नों का उत्तर चाहा / प्रश्न सूनकर आर्य स्कन्दक सकपका गये। वे भगवान महावीर के चरणों में पहुंचे। सर्वज्ञ सर्वदर्शी महावीर ने स्कन्दक को सम्बोधित कर कहा--उपर्युक्त प्रश्न पिंगल निर्ग्रन्थ ने तुमसे पूछे और उनका सही समाधान पाने के लिये तुम मेरे पास उपस्थित हुए हो / उनका समाधान इस प्रकार है 186. तीर्थंकर महावीर, भाग 1, पृ. 198 187. (क) डिक्शनरी ऑव पाली प्रोपर नेम्स, मलालसेकर, II पृ. 159 (ख) महाभारत 12 / 19013 188. निशीथचणि 13, 4420 189. निरुक्त 1514 वैदिककोष 190. प्रोपपातिकसूत्र, 38 पृ. 172 से 176 191. सूत्रकृतांगनियुक्ति 3, 4, 2, 3, 4 पृ, 94 से 95 992. पिण्डनियुक्ति गाथा 314 / / 193. बृहत्कल्पभाष्य भाग 4, पृ. 1170 194. निशीथसूत्र सभाष्य चणि, भाग 2 195. आवश्यकचूणि पृ. 278 196. धम्मपद अट्ठकथा 2, पृ. 209 197. दीघनिकायग्रट्ठकथा 1, पृ. 270 198. ललितविस्तर पृ. 248 [ 58] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org