________________ वाणी से संयम रखता हूँ और पाहार से नियमित रहकर सत्य से मन के दोषों की गोडाई करता हूँ। 75 अंगुत्तरनिकाय दिट्रवज्जसुत्त में तथागत ने कहा कि किसी तप या व्रत को करने से किसी के कुशल धर्म की अभिवद्धि होती है और अकुशल धर्म नष्ट होते हैं तो उसे वह तप अादि अवश्य करना चाहिये / '76 तथागत बुद्ध ने स्वयं कठिनतम तप तपा था। 177 उनका तपोमय जीवन इस बात का ज्वलन्त प्रतीक है कि बौद्धसाधना में तप का विशिष्ट स्थान रहा है। बुद्ध मध्यममार्गी थे। इस कारण उनके द्वारा प्रतिपादित तप भी मध्यममार्गी ही रहा / उसमें उतनी कठोरता नहीं पा पाई / विस्तार भय से हम अन्य ग्राजीवक प्रभृति परम्परा में जो तप का स्वरूप रहा और विभिन्न परम्पराओं ने तप का विविध दष्टियों से जो वर्गीकरण किया, उस पर यहाँ चिन्तन नहीं कर रहे हैं / हम संक्षेप में यही बताना चाहते हैं कि जैनपरम्परा ने जो तप का विश्लेषण किया है उस तप का उद्देश्य एकान्त प्राध्यात्मिक उत्कर्ष करना है। प्राध्यात्मिक उत्कर्ष के लिये उसने ज्ञानसमन्वित तप को महत्त्व दिया है। जिस तप के पीछे समत्व की साधना नहीं है, भेद-विज्ञान का दिव्य आलोक जगमगा नहीं रहा है वह तप नहीं ताप है/संताप है/परिताप है। श्रमण भगवान महावीर ने कहा-एक अज्ञानी साधक एक-एक महीने की तपस्या करता है और उस तप की परिसमाप्ति पर कुशाग्र जितना अन्न ग्रहण करता है। वह साधक ज्ञानी की सोलहवीं कला के बराबर भी धर्म का आचरण नहीं करता।'७८तप का प्रयोजन आत्म-परिशोधन है, न कि देह-दण्डन / जब हमें घी को तपाना होता है तो उसे पात्र में डालकर ही तपाया जा सकता है, इसीलिये घत के साथ-साथ पात्र भी तप जाता है, जबकि हमारा हेतु तो घृत तपाना ही होता है। उसी प्रकार जब कोई तपस्वी साधक तपश्चर्या में तल्लीन होता है तो उसकी तपस्या का हेतु होता है--प्रात्मा को शोधना, किन्तु प्रात्मा को तपाने / शोधने को इस प्रक्रिया में शरीर स्वतः ही तप जाता है। चेष्टा प्रात्मशोधन की है किन्तु शरीर आत्मा का भाजन/पात्र होने से तपता है। जिस तप में मानसिक संक्लेश हो, पीड़ा हो वह तप नहीं है / तप में प्रात्मा को प्राकुलता नहीं होती, क्योंकि तप तो आत्मा का आनन्द है / तप जागृत प्रात्मा की अनुभूति है। इससे मन की मलीनता नष्ट होती है, वासनाएं शिथिल होती हैं; चेतना में नये प्रानन्द का आयाम खुल जाता है और नित्य नतन अनुभूति होने लगती है। यह है तप का जीवन्त, जागत और शाश्वत स्वरूप / तप एक ऐसी उष्मा है, जो विकार को नष्ट कर आत्मा को वीतराग बनाती है। परिषह : एक चिन्तन भगवतीसूत्र शतक 8 उद्देशक 5 में गणधर गौतम की जिज्ञासा पर भगवान् महावीर ने परिषह के 22 प्रकार बताये हैं। परीषह का अर्थ है-कष्टों को समभावपूर्वक सहन करना / परीषह में जो कष्ट सहन किये जाते हैं वे स्वेच्छा से नहीं अपितु श्रमणजीवन की प्राचार संहिता का पालन करते हुए अाकस्मिक रूप से यदि 175. कासिभारद्वाजसुत्त, सुत्तनिपात 4/2 176. दिट्ठवज्जसुत्त-अंगुत्तरनिकाय 177. भगवान बुद्ध (धर्मानन्द कोसाम्बी) 1068-70 178. मासे मासे तु जो बालो कुसग्गेणं तु भुंजए। न सो सुयक्खायधम्मस्स कलं अग्घइ सोलसि // तुलनेयमासे मासे कुसग्गेन बालो भुजेथ भोजनं / न सो संखतधम्मानं कलं अग्घति सोलसि // --उत्तराध्ययन, 9/44 -धम्मपद, 70 [ 56 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org