________________ और मेरा मात्मा अन्य है। शरीर नाशवान है, पात्मा शाश्वत है। व्युत्सर्ग करने वाला साधक स्व के यानी प्रात्मा के निकट से निकटतर होता चला जाता है और पर की ममता से मुक्त होता है। उत्तराध्ययन 56 में व्यत्सर्ग के अर्थ में ही कायोत्सर्ग का प्रयोग हआ है। कायोत्सर्ग व्यूत्सर्ग है, पर भगवती में व्युत्सर्ग तप के दो भेद बताये हैं-१ द्रव्य व्युत्सर्ग और 2. भाव व्युत्सर्ग / द्रव्य व्युत्सर्ग के चार प्रकार हैं-१. गण व्युत्सर्ग 2. शरीर व्युत्सर्ग 3. उपधि व्युत्सर्ग 4. भक्तपाण व्युत्सर्ग। इसी प्रकार भाव व्युत्सर्ग के तीन भेद हैं-१. कषाय व्युत्सर्ग 2. संसार व्युत्सर्ग और 3. कर्म व्युत्सर्ग / साधक पहले द्रव्य व्युत्सर्ग करता है / द्रव्य व्युत्सर्ग से वह पाहार, वस्त्र, पात्र और शरीर पर के ममत्व को कम करता है। व्युत्सर्ग में सबसे प्रमुख कायोत्सर्ग है। काया को धारण करते हुए भी काया की अनुभूति व ममता से मुक्त हो जाना एक बड़ी साधना है / एतदर्थ ही 'वोसट्टकाए, वोसटुचत्तदेहे' जैसे विशेषण साधक के लिये प्रयुक्त हुए हैं। जिसने कायोत्सर्ग सिद्ध कर लिया, वह अन्य व्युत्सर्ग भी सहज रूप से कर लेता है। यह स्मरण रखना होगा कि जैन तप:साधना का जो पवित्र पथ है, उसमें हठयोग नहीं है। उस तप में किसी भी प्रकार का तन और मन के साथ बलात्कार नहीं होता अपित धीरे-धीरे तन और जाता है और प्रसन्नता के साथ तप की आराधना की जाती है। जैनदष्टि से तप का संलक्ष्य आत्मतत्त्व की उपलब्धि है 1 तप से साधक का अन्तिम लक्ष्य जो मोक्ष है, उसकी उपलब्धि होती है। तप के सम्बन्ध में वैदिक परम्परा में भी चिन्तन किया है। वैदिक ऋषियों ने लिखा है कि तप से ही वेद उत्पन्न हसा है।'६८ तप से ही ऋत और सत्य उत्पन्न हुए हैं।६६ तप से ही ब्रह्म की अन्वेषणा की जा सकती है। '70 तप से ही मृत्यु पर विजय-बैजयन्ती फहराई जा सकती है / 171 तप से हो लोक पर विजय प्राप्त की जा सकती है। प्राचार्य मनु ने लिखा है---जो कुछ भी दुर्लभ और दुस्तर इस संसार में है वह सब तपस्या से ही प्राप्य है। तप की शक्ति को कोई अतिक्रमण नहीं कर सकता।७३ इस तरह वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में तप की महिमा और गरिमा का उटंकण हुआ है। बौद्धपरम्परा में भी तप का वर्णन है। सुत्तनिपात के महामंगलसुत्त में तथागत बुद्ध ने कहा-तप, ब्रह्मचर्य, प्रार्य सत्यों का दर्शन और निर्वाण का साक्षात्कार, ये उत्तम मंगल है / 174 सूत्तनिपात के काशीभारद्वाज सुत्त में तथागत बुद्ध ने कहा---मैं श्रद्धा का बीज वपन करता है, उस पर तपश्चर्या की वर्षा होती है, शरीर और 166. उत्तराध्ययन, 30/36 167. भगवतीसूत्र, 25/7 168. मनुस्मृति 11, 243 169. ऋग्वेद 10, 190, 1. 170. मुण्डक 1, 1,8 171. ब्रह्मचर्येण तपसा देवा मृत्युमुपाघ्नत-वेद 172. शतपथब्राह्मण 3, 4, 4, 27 / 173. यद् दुस्तरं यद् दुरापं दुर्ग यच्च दुष्करम् / सर्व तु तपसा साध्यं तपो हि दुरतिक्रमम् // 174. महामंगलसुत्त, सुत्तनिपात 16/10 -मनुस्मृति 11, 237 [ 55 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org