________________ स्थानांग' 24 में कायक्लेश तप के सात प्रकार बताये हैं-कायोत्सर्ग करना, उत्कुटुक प्रासन से ध्यान करना, प्रतिमा धारण करना. वीरासन करना. निषद्या-स्वाध्याय प्रभति के लिये पालयी मारकर खड़े रहकर ध्यान करना लगण्डशायित्व / प्रोपपातिकसूत्र'१५ में कायक्लेश तप के चौदह प्रकार प्रतिपादित हैं 1. ठाणदिइए-कायोत्सर्ग करे। 2. ठाणइए–एक स्थान पर स्थित रहे। 3. उक्कुडु पासणिए-उत्कुटुक आसन से रहे / 4. पडिमट्ठाई—प्रतिमा धारण करे / 5. वीरासणिए-वीरासन करे। 6. नेसिज्जे पालथी लगाकर स्थिर बैठे। 7. दंडायए---दंडे की भाँति सीधा सोया या बैठा रहे। 8. लगडसाई (लगण्डशायी) लक्कड़ (वक काष्ठ) की तरह सोता रहे / 9. आयावए-आतापना लेवे / / 10. अवाउडए वस्त्र आदि का त्याग करे। 11. प्रकंडुयाए-शरीर पर खुजली न करे / 12. अणिरठ्ठहए-थूक भी न थूके / 13. मबगायपरिकम्मे-सर्व शरीर की देखभाल (परिकर्म) से रहित रहे / 14, विभूसाविप्पमुक्के-विभूषा से रहित रहे। तत्त्वार्थसूत्र की श्रुतसागरीया वृत्ति'२६ मूलाराधना, 27 भगवतीयाराधना, 28 वृहत्कल्पभाष्य' 26 प्रभति ग्रन्थों में कायक्लेश के गमन, स्थान, प्रासन, शयन और अपरिकर्म प्रादि भेदोपभेदों का वर्णन है 1 दिगम्बर परम्परा के अनुसार कुछ कायक्लेश तप गृहस्थ श्रावकों को नहीं करना चाहिये। 30 तप का छठा प्रकार प्रतिसलीनता है। प्रतिसंलीनता का अर्थ है-ग्रात्मलीनता। पर भाव में लीन आत्मा को स्व-भाव में लीन बनाने की प्रक्रिया हो वस्तुत: संलीनता है। इन्द्रियों को, कषायों को, मन, वचन, काया के योगों को बाहर से हटाकर भीतर में गुप्त करना संलीनता है। प्रतिसंलीनता तप के चार प्रकार हैं--- इन्द्रियप्रतिमलीलता, कयायप्रतिसंलीनता, योगप्रतिसं लीनता, विविक्तशयनासनसेवना।'' तप के ये छह प्रकार बाह्य तप के अन्तर्गत हैं। 124. स्थानांग, 7 / सूत्र 554 125. औपपातिक, समवसरण अधिकार 126. तस्वार्थ सूत्र, श्रुतसागरीया वृत्ति 9 / 19 127. मूलाराधना, 31222-225 / 128. भगवती आराधना, 221-225 129. वृहत्कल्पभाष्य वृत्ति, गाथा 5953 130. दिणपडिम-वीरचरिया-तियाल जोगेसू गस्थि अहियारो। सिद्धतरहसाणवि अज्झयण देशविरदाणं // -वसुनन्दि श्रावकाचार, 312 131. भगवतीसूत्र 257 [47 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org