________________ मैन की अन्तर्मुखता, अन्तलीनता शुभ ध्यान है। मन स्वभावतः चंचल है / वह लम्बे समय तक एक वस्तु पर स्थिर नहीं रह सकता। प्राचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है कि छमस्थ का मन अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त तक यानी 48 मिनिट तक एक पालम्बन पर स्थिर रह सकता है, उससे अधिक नहीं / पवित्र विचारों में मन को स्थिर करना धर्मध्यान है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो प्रात्मा का आत्मा के द्वारा प्रात्मा के विषय में सोचना, चिन्तन करना धर्मध्यान है। भगवती, स्थानांग आदि में धर्मध्यान के प्राज्ञाविचय, अपायविचय, विषाकविचय और संस्थानविचय, ये चार प्रकार कहे हैं। धर्मध्यान के आज्ञारुचि, निसर्गरुधि, सूत्ररुचि और अबगाढ़रुचि---ये चार लक्षण हैं। इसी प्रकार धर्मध्यान को सुस्थिर रखने के लिये धर्म ध्यान के चार आलम्बन भी बताये गये हैं-१. वाचना, 2. पृच्छना, 3. परिवर्तना और 4. धर्मकथा। धर्मध्यान के समय जो चिन्तन तल्लीनता प्रदान करता है, उस चिन्तन को हम अनुप्रेक्षा कहते हैं। अनुप्रेक्षा के भी चार प्रकार हैं-१. एकत्वानुप्रेक्षा, 2. अनित्यानुप्रेक्षा, 3. अशरणानुप्रेक्षा एवं 4, संसारानुप्रेक्षा। इन चारों भावनाओं से मन में बैराग्य भावना तरंगित होती है। भौतिक पदार्थों के प्रति आकर्षण न्यून हो जाता है। धर्म-ध्यान से जीवन में मानन्द का सागर ठाठे मारने लगता है। धर्मध्यान में मुख्य तीन अंग हैं-ध्यान, ध्याता और ध्येय / ध्यान का अधिकारी ध्याता कहलाता है। एकाग्रता ध्यान है। जिसका ध्यान किया जाता है, वह ध्येय है। चंचल मन बाला व्यक्ति ध्यान नहीं कर सकता। जहाँ प्रासन की स्थिरता ध्यान में अपेक्षित है, वहाँ मन की स्थिरता भी बहुत अपेक्षित है। इसीलिये ज्ञानार्णव में लिखा है, जिसका चित्त स्थिर हो गया है, वही वस्तुत: ध्यान का अधिकारी है। ध्येय के सम्बन्ध में तीन बातें हैं-एक परावलम्बन, जिसमें दूसरी वस्तुओं का अबलम्बन लेकर मन को स्थिर करने का प्रयास किया जाता है / श्रमण भगवान महावीर अपने साधनाकाल में एक पुद्गल पर दृष्टि केन्द्रित करके ध्यानमुद्रा में खड़े रहे थे / 55 जब एक पुदगल पर दृष्टि केन्द्रित होती है तो मन स्थिर हो जाता है। इसे त्राटक भी कह सकते हैं। ध्यान का दूसरा प्रकार स्वरूपाबलम्बन है, इसमें बाहर से दष्टि हटाकर नेत्रों को बन्द कर विविध प्रकार की कल्पनाओं से यह ध्यान किया जाता है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में, प्राचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव में पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ, रूपातीत जो ध्यान के प्रकार और उनकी धारणानों के सम्बन्ध में विस्तार से निरूपण किया है, वह सब स्वरूपावलम्बन ध्यान के अन्तर्गत ही है। हमने 'जैन आचार सिद्धान्त और स्वरूप' ग्रन्थ में विस्तार से इस सम्बन्ध में लिखा है। जिज्ञासु पाठक उसका अवलोकन करें। तीसरा प्रकार है-निराबलम्बन / इसमें किसी भी प्रकार का कोई आलम्बन नहीं होता / मन विचार, विकार और विकल्पों से शून्य होता है / प्राचार्य हेमचन्द्र ने जो रूपातीत ध्यान प्रतिपादित किया है वह यही है। इसमें निरंजन, निराकार सिद्ध स्वरूप का ध्यान किया जाता है और प्रात्मा स्वयं कर्म-मल से मुक्त होने का अभ्यास करता है / ' 56 इस ध्यान में साधक यह समझता है कि मैं अलग हूं और इन्द्रियाँ व मन अलग हैं / साधक स्थूल से सूक्ष्म की ओर बढ़ता है। रूप से अरूप की ओर बढ़ने के लिये अत्यधिक अभ्यास की आवश्यकता है। रूपातीत ध्यान जब सिद्ध हो जाता है, तब भेदरेखा स्वतः ही समाप्त हो जाती है। ध्याता, ध्येय और ध्यान-तीनों एकाकार 155. एमपोग्गलनिविददिदिए / -भगवतीसूत्र 3/2 156. निरंजनस्य सिद्धस्य ध्यानं स्याद् रूपवजितम् / -योगशास्त्र 10/1 [52 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org