________________ भगवान महावीर ने कहा-'जे गिलाणं पडियरह से धन्ने' अर्थात जो रोगी की सेवा करता है, वही वस्तुतः धन्यवाद का पात्र है। गणधर गौतम इस उत्तर को सुनकर आश्चर्यान्वित हो गये। वे सोचने लगे- कहाँ एक ओर अनन्तज्ञानी लोकोत्तम पुरुष भगवान की सेवा और दूसरी ओर एक सामान्य श्रमण की परिचर्या ! दोनों में जमीन-पासमान की तरह अन्तर है। तथापि भगवान अपनी भक्ति से भी बढ़कर हरण श्रमण की सेवा को महत्त्व दे रहे हैं। अत: गणधर गौतम ने पुन: जिज्ञासा प्रकट की तो भगवान महावीर ने कह सेवा का कोई महत्त्व नहीं है। महत्त्व है मेरी माज्ञा की आराधना करने का / "आणाराहणं ख जिजाण"..-- जिनेश्वरों की प्राज्ञा का पालन करना ही सबसे बड़ी सेवा है। स्थानांगसूत्र में भगवान महावीर प्रभु ने पाठ शिक्षाएँ प्रदान की हैं। उनमें से दो शिक्षा सेवा से सम्बन्धित हैं / जो अनाश्रित हैं, असहाय हैं, जिनका कोई आधार नहीं है, उनको सहायता-सहयोग एवं आश्रय देने को सदा तत्पर रहना चाहिये तथा दूसरी शिक्षा है रोगी की सेवा करने के लिये अग्लान भाव से सदा तत्पर रहना चाहिये।'४० स्थानांग और भगवती में वयावत्य के दस प्रकार बताये हैं-१. आचार्य को सेवा, 2. उपाध्याय की सेवा, 3. स्थविर की सेवा, 4. तपस्वी की सेवा, 5. रोगी की सेवा, 6. नवदीक्षित मुनि की सेवा, 7. कुल की सेवा (एक प्राचार्य के शिष्यों का समुदाय-कुल), 8. गण की सेवा, 9. संघ की सेवा, 10. सार्धा सेवा करते समय विवेक को भी आवश्यकता है। सेवा करने वाले को यह ध्यान में रहना चाहिये कि अवसर के अनुसार सेवा की जाए। व्यवहारभाष्य में लिखा है कि प्रावश्यकता होने पर भोजन देना, पानी देता, सोने के लिये बिस्तर आदि देना, गुरुजनों के वस्त्रादि का प्रतिलेखन कर देना, पांव पौंछना, रुग्ण हो तो दवा मादि का प्रबन्ध करना, रास्ते में डगमगा रहे हों तो सहारा देना, राजा आदि के ऋद्ध होने पर प्राचार्य, संघ आदि को रक्षा करना, चोर आदि से बचाना, यदि किसी ने दोष का सेवन किया है तो उसको स्नेहपूर्वक समझा कर उसकी विशुद्धि करवाना, रुग्ण हो तो उसकी दवा-पथ्यादि का ध्यान रखना, रोगी के प्रति घृणा या ग्लानि न कर अग्लान भाव से सेवा करना / आभ्यन्तर तप का चतुर्थ प्रकार स्वाध्याय है / 'सुष्ठु-या मर्यादया अधीयते इति स्वाध्यायः।१४३ सत् शास्त्रों का मर्यादापूर्वक प्रोर विधिसहित अध्ययन करना स्वाध्याय है / दूसरी व्युत्पत्ति है- स्वस्य स्वस्मिन् अध्यायःप्रध्ययनम-स्वाध्यायः / अपना अपने ही भीतर अध्ययन, अात्मचिन्तन मनन स्वाध्याय है। जैसे शरीर के विकास के लिये व्यायाम आवश्यक है, वैसे ही बुद्धि के विकास के लिये स्वाध्याय है। स्वाध्याय से नया विचार और नया चिन्तन उदबुद्ध होता है। गलत पाहार स्वास्थ्य के लिये अहितकर है, वैसे ही विकारोत्तेजक पुस्तकों का वाचन भी मन को दूषित करता है। अध्ययन वही उपयोगी है जो सद्विचारों को उबुद्ध करे। इसीलिये भगवान महावीर ने उत्तराध्ययन में स्पष्ट शब्दों में कहा कि स्वाध्याय समस्त दुःखों से मुक्ति दिलाता है / ' 44 अनेक भवों के संचित कर्म स्वाध्याय से क्षीण हो जाते हैं। '45 स्वाध्याय अपने-आप में महान तप है / तैत्तिरीय आरण्यक में 142. प्रसंगिहीय परिजणस्स संगिण्हणयाए अन्भुट्टेयध्वं भवइ, गिलाणस्स अगिलाए वेयावच्चकरणयाए अब्भठ्यब्वं भवइ। स्थानांगसूत्र 8 143. स्थानांग टीका 5 / 3 / 465 144, उत्तराध्ययन 26 / 10 145. चन्द्रप्रज्ञप्ति 91 [50] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org