________________ वैदिक ऋषि ने कहा-तपो हि स्वाध्यायः ४.-स्वाध्याय स्वयं एक तप है। उसकी साधना-आराधना में कभी प्रमाद नहीं करना चाहिये / इसलिये तैत्तिरीय उपनिषद् में भी कहा है-स्वाध्यायान मा प्रमद / 147 स्वाध्याय से बुद्धि निर्मल होती है। फर्श की ज्यों-ज्यों घटाई होती है, त्यों-त्यों वह चिकना होता है। उसमें प्रतिबिम्ब छलकने लगता है, वैसे ही स्वाध्याय से मन निर्मल और पारदर्शी बन जाता है। प्रागमों के गम्भीर रहस्य उसमें प्रतिविम्बित होने लगते हैं। प्राचार्य पतञ्जलि ने योगदर्शन में लिखा है कि स्वाध्याय से इष्टदेव का साक्षात्कार होने लगता है। '48 एक चिन्तक ने लिखा है कि स्वाध्याय से चार बातों की उपलब्धि होती है, स्वाध्याय से जीवन में सदविचार आते हैं, मन में सत्संस्कार जागत होते हैं। स्वाध्याय से अतीत के महापुरुषों की दीर्घकालीन साधना के अनुभवों की थाती प्राप्त होती है। स्वाध्याय से मनोरंजन के साथ मानन्द भी प्राप्त होता है। स्वाध्याय से मन एकाग्र और स्थिर होता है। जैसे अग्निस्नान करने से स्वर्ण मलमुक्त हो जाता है वैसे ही स्वाध्याय से मन का मल नष्ट होता है / अतः नियमित स्वाध्याय करना चाहिये। भगवतीसूत्र,१४६ स्थानांग,१५० औपपातिक 51 प्रभति पागम साहित्य में स्वाध्याय के पांच प्रकार बताये हैं। वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्म कथा तथा इनके भी अवान्तर भेद किये गये हैं। स्वाध्याय से ज्ञान का दिव्य आलोक जगमगाने लगता है। अन्तरंग तप का पांचवां प्रकार ध्यान है। मन की एकाग्र अवस्था ध्यान है। प्राचार्य हेमचन्द्र ने अभिधान-चिन्तामणि कोष में लिखा है-अपने विषय में मन का एकाग्र हो जाना ध्यान है।'५२ आचार्य भद्रबाहू ने आवश्यकनियुक्ति में लिखा है--चित्त को किसी भी विषय में एकाग्र करना, स्थिर करना, ध्यान है।'५3 जिज्ञासा हो सकती है कि मन का किसी भी विषय में स्थिर होना ही यदि ध्यान है तो लोभी व्यक्ति का ध्यान सदा धन कमाने में लगा रहता है, चोर का ध्यान वस्तु को चुराने में लगा रहता है, कामी का ध्यान वासना की पूर्ति में लगा रहता है, क्या वह भी ध्यान है ? समाधान है कि पापात्मक चिन्तन की एकाग्रता भी ध्यान है। भारत के तत्वदर्शी मनीषियों ने ध्यान को दो भागों में विभक्त किया है—एक शुभ ध्यान है और दूसरा अशुभ ध्यान है। शुभ ध्यान मोक्ष का कारण है तो अशुभ ध्यान नरक और तिर्यञ्च का कारण है। अशुभ ध्यान प्रधोमुखी होता है तो शुभ ध्यान ऊर्ध्वमुखी होता है। अशुभ ध्यान अप्रशस्त है, शुभ ध्यान प्रशस्त है। इसीलिये स्थानांग प्रादि में ध्यान के चार प्रकार बताये हैं--प्रार्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यात प्रौर शुक्लध्यान / इन चार प्रकारों में दो प्रकार अशुभ ध्यान के हैं। वे दोनों प्रकार तप की कोटि में नहीं आते / अत: प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने ध्यान की परिभाषा इस प्रकार की है—शुभ और पवित्र मालम्बन पर एकाग्र होला ध्यान है।५४ 146. तैत्तिरीय प्रारण्यक 2 / 14 147. तैत्तिरीय उपनिषद् 11111 148. स्वाध्यायादिष्ट देवतासंप्रयोगः। -योगदर्शन 2144 149. भगवती, 2517 150. स्थानांग.५ 151. औपपातिक. समवसरण, तप अधिकार / 152. ध्यानं तु विषये तस्मिन्नेकप्रत्ययसंततिः। प्राभिधान राजेन्द्र कोष 148 153. चित्तस्सेमागया हवई झाणं। -आवश्यकनियुक्ति 1456 154. शुभकप्रत्ययो ध्यानम् / द्वात्रिंशद् द्वात्रिंशिका 18111 [51] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org