________________ उन रसों को विकृति कहा है / आचार्य सिद्धसेन ने विकृति की परिभाषा करते हुए लिखा है---घी ग्रादि पदार्थ खाने से मन में विकार पैदा होते हैं / विकार उत्पन्न होने से मानव संयम से भ्रष्ट होकर दुर्गति में जाता है / अतः इन पदार्थों का सेवन करने वाले की विकृति और विगति दोनों होती हैं। इस कारण इन्हें विगयी (विकृति और विगति) कहा है।'१६ पांच इन्द्रियों में रसना इन्द्रिय पर विजय प्राप्त करना बहुत ही कठिन है। भारत के तत्त्वदर्शी मनीषियों ने कहा- "सर्व जितं जिते रसे"--जिसने रसनेन्द्रिय को जीत लिया उसने संसार के सभी रमों को जीत लिया। यही कारण है, भगवती में साधक के लिये स्पष्ट निर्देश दिया है कि चाहे सरस पाहार हो या नीरस, लोलुपता रहित होकर ऐसे खाए जैसे बिल में सांप घुस रहा हो।' 20 साधक को आहार का निषेध नहीं है पर स्वाद का निषेध है / आचारांग में उल्लेख है कि श्रमण को स्वादवृत्ति से बचने के लिए ग्रास को बायीं दाढ़ से दाहिनी दाढ़ की ओर भी नहीं ले जाना चाहिये। वह स्वादवत्ति रहित होकर खाए। इससे कमों का हल्कापन होता है। ऐसा साधक आहार करता हुग्रा भी तपस्या करता है / 191 इस प्रकार साधु पाहार करता हुआ कर्मों के बन्धन को ढीले करता है। यहाँ तक कि केवलज्ञान भी प्राप्त कर सकता है। यदि आसक्त होकर आहार करता है तो कर्मबन्धन कर लेता है / अतः रसपरित्याग को तप माना है। तप का पांचवां प्रकार कायक्लेश है। कायक्लेश का अर्थ शरीर को काष्ट देना है। कष्ट, एक स्वकृत होता है और दुसरा परकृत होता है। कितने ही कष्ट न चाहने पर भी प्राते हैं। देव, मानव और तिर्यञ्च सम्बन्धी से कष्ट जो स्वत: पा जाते हैं और दूसरे कष्ट उदीरणा करके बुलाये जाते हैं। जैसे प्रासन करना, ध्यान लगा कर स्थिर हो जाना, भयंकर जंगल में कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ा होना, केश लुच्चन करना आदि / जैसे मेहमान को निमंत्रण देकर बुलाया जाता है वैसे ही साधक अपने धैर्य, साहम वद्धि के हेतु कष्टों को निमंत्रण देता है। भगवतीसत्र 23 में जहाँ कायक्लेश तप का उल्लेख है, वहाँ पर 22 परी पहों का भी वर्णन है। कायक्लेश और परीषह में जरा अन्तर है। कायक्लेश का अर्थ है--अपनी ओर से कष्टों को स्वीकार करना। कर्मनिर्जरा के हेतु अनेक प्रकार के ध्यान, प्रतिमा, केश लुञ्चन, शरीर मोह का त्याग आदि के द्वार स्वीकार करता है। यह विशेष तप कायक्लेश कहलाता है। कायक्लेश में स्वेच्छा से कष्ट सहन किया जाता है, जबकि परीषह में स्वेच्छा से कष्ट सहन नहीं किया जाता अपितु श्रमण जीवन के नियमों का परिपालन करते हए प्राकस्मिक रूप से यदि कोई कष्ट उपस्थित हो जाता है तो उसे सहन किया जाता है। आवश्यकचणि 23 में लिखा है, जो सहन किये जाते हैं, वे परीषह हैं। कायक्लेश हमारे जीवन को निखारता है। उसकी साधना के अनेक रूप प्रागम साहित्य में प्राप्त है। 119. (क) तत्र मनसो विकृतिहेतुत्वाद् विगति हेतुत्वाद् वा विकृतयो, विगतयो। --प्रवचनसारोद्धारवृत्ति (प्रत्या. द्वार) (ख) मनसो विकृति हेतुत्वाद् विकृतयः। योगशास्त्र, 3 प्रकाशवृत्ति 122. भगवतोसूत्र 7/1 121. प्रवचन मार 3327 122. भगवतीसूत्र शतक 8, उद्देशक 123. परिसहिज्जते इति परीसहा / -पावश्यकणि 2, पृ. 139 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org