________________ 780] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [3 प्र. भगवन् ! क्या असुरकुमार चरम भी हैं और परम भी हैं ? [3 उ. हाँ, गौतम ! वे दोनों हैं, किन्तु विशेष यह है कि यहाँ (परम एवं चरम के सम्बन्ध में) (पूर्वकथन से) विपरीत कहना चाहिए / (जसे कि-) परम असुरकुमार (अशुभ कर्म की अपेक्षा) अल्पकर्म वाले हैं और चरम असुर कुमार महाकर्म वाले हैं। शेष पूर्ववत्, यावत्-स्तनितकुमारपर्यन्त इसी प्रकार जानना चाहिए / 4. पुढविकाइया जाव मस्सा एए जहा नेरझ्या / [4] पृथ्वी कायिकों से लेकर यावत् मनुष्यों तक नैरयिकों के समान समझना चाहिए / 5. वाणमंतर-जोतिस-वेमाणिया जहा असुरकुमारा। [5] बाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों के सम्बन्ध में असुरकुमारों के समान कहना चाहिए। विवेचन-नैरयिकादि का चरम-परम के आधार पर अल्पकर्मत्वादि का निरूपण---प्रस्तुत 5 सूत्रों (1 से 5 तक) में नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक चरम और परम के आधार पर महाकर्मत्व अल्पकर्मत्व आदि का निरूपण किया गया है / 'चरम' और 'परम की परिभाषा ये दोनों पारिभाषिक शब्द हैं। इनका क्रमशः अर्थ हैअल्प स्थिति (पायुष्य) वाले और दीर्घ स्थिति (लम्बी आयु) वाले।। चरम की अपेक्षा परम नैरयिक महाकर्मादि वाले क्यों ? जित नैरयिकों की स्थिति अल्प होती है, उनकी अपेक्षा दीर्घ स्थिति वाले नैरयिकों के अशुभकर्म अधिक होते हैं, इस कारण उनकी क्रिया, प्रास्त्रव और वेदना भी अधिकतर होती है। इसीलिए कहा गया है कि चरम की अपेक्षा परम नैरयिक महाकर्म, महाक्रिया, महास्रव और महावेदना वाले होते हैं। परम की अपेक्षा चरम नैयिक अल्पकर्मादि वाले क्यों ? --परम नैरयिक दीर्घ स्थिति वाले होते हैं, अतः उनको अपेक्षा अल्पस्थिति वाले चरम नै रयिकों के अशुभ कर्मादि अल्प होने से वे अल्पकर्मादि वाले होते हैं / पृथ्वी कायिकादि एकेन्द्रिय से लेकर मनुष्यों तक इसी प्रकार समझना चाहिए। चारों प्रकार के देवों में इनसे विपरीत भवनपति. वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में परम (दीर्घ स्थिति वालों) की अपेक्षा चरम (अल्प स्थिति वाले) देव महाकर्मादि वाले हैं, चरम देवों की अपेक्षा परम देव अल्पकर्मादि वाले हैं, क्योंकि उनके (दीर्घ स्थिति वालों के) असाता वेदनीयादि अशुभकर्म अल्प होते हैं, इस कारण उनमें कायिकी आदि क्रियाएँ भी अल्प होती है, अशुभकर्मों का प्रास्त्रव भी कम होता है और उन्हें पीड़ा अत्यल्प होने से उनके वेदना भी अल्प होती है / चरम (अल्पस्थिति वाले) देव के अशुभ कर्म भी अधिक, क्रिया भी अधिक, पात्रव 1 (क) भगवती. वृत्ति, पत्र 769 (ख) भगवती. विवेचन (पं. घेवरचंदजी) भा. 6, पृ, 2804 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org