________________ नवमो उद्देसओ : 'करण' नौवाँ उद्देशक : करण द्रव्यादि पंचविध करण और नरयिकादि में उनकी प्ररूपणा 1. कतिविधे णं भंते ! करणे पन्नत्ते? गोयमा! पंचविहे करणे पन्नते, तं जहा-दव्धकरणे खेत्तकरणे कालकरणे भवकरणे भावकरणे। [1 प्र.] भगवन् ! करण कितने प्रकार का कहा गया है ? [1 उ.] गौतम ! करण पांच प्रकार का कहा गया है / यथा-(१) द्रव्य-करण (2) क्षेत्रकरण (3) काल-करण (4) भव-करण और (5) भाव-करण / 2. नेरतियाणं भंते ! कतिविधे करणे पन्नते? गोयमा ! पंचविहे करणे पन्नते, तं जहा-दश्वकरणे जाव भावकरणे / [2 प्र.] भगवन् ! नै रयिकों के कितने करण कहे गए हैं ? [2 उ.] गौतम ! उनके पांच प्रकार के करण कहे गए हैं, यथा-द्रव्यकरण, यावत्भावकरण / 3. एवं जाव बेमाणियाणं / [3] (नै रयिकों से लेकर) यावत्-वैमानिकों तक इसी प्रकार (का कथन करना चाहिए / ) विवेचन-करण : स्वरूप, प्रकार और चौबीस दण्डकों में करणों का निरूपण--प्रस्तुत तीन सूत्रों में करणों के प्रकार और नैरयि कादि में पाए जाने वाले करणों का निरूपण किया गया है। जिसके द्वारा कोई क्रिया की जाए अथवा क्रिया के साधन को करण कहते हैं / अथवा कार्य या करने रूप क्रिया को भी करण कहते हैं। वैसे तो निर्वृत्ति भी क्रिया रूप है, परन्तु निर्वृत्ति और करण में थोड़ा-सा अन्तर है। क्रिया के प्रारम्भ को करण कहते हैं और क्रिया की निष्पत्ति (समाप्ति--पूर्णता) को निति कहते हैं। द्रव्यकरण-दांतली (हंसिया) और चाक प्रादि द्रव्यरूप करण द्रव्यकरण है। अथवा तणशलाकारों (तिनके की सलाइयों) (द्रव्य) से करण अर्थात् चटाई प्रादि बनाना द्रव्यकरण है। पात्र प्रादि द्रव्य में किसी वस्तु को बनाना भी द्रव्यकरण है / क्षेत्रकरण-क्षेत्ररूप करण (बीज बोने का क्षेत्र-खेत) क्षेत्रकरण है / अथवा शालि आदि धान का क्षेत्र आदि बनाना क्षेत्रकरण है / अथवा किसी क्षेत्र से अथवा क्षेत्रविशेष में स्वाध्यायादि करना भी क्षेत्रकरण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org