________________ बन्धन विजातीय तत्त्व के सम्बन्ध से होता है। जड़े द्रव्यों में एक पुदगल नामक द्रव्य है। पुदगल के अनेक प्रकार हैं, उनमें कर्मवर्गणा या कर्मपरमाण एक सूक्ष्म भौतिक द्रव्य है। इस सूक्ष्म भौतिक कर्मद्रव्य से प्रात्मा का सम्बन्धित होना बन्धन है। बन्धन आत्मा का अनात्मा से, जड़ का चेतन से, देह का देही से संयोग है। आचार्य उमास्वाति के शब्दों में कहा जाय तो कषायभाव के कारण जीव का कर्मपुदगल से आक्रान्त हो जाना बन्ध है। आचार्य देवेन्द्रसरि ने लिखा है कि प्रास्मा जिस शक्ति-विशेष से कर्मपरमाणों को आकर्षित कर उन्हें आठ प्रकार के कर्मों के रूप में जीवप्रदेशों से सम्बन्धित करता है तथा कर्मपरमाणु और प्रात्मा परस्पर एक दूसरे को प्रभावित करते हैं, वह बन्धन है।८८ जैनदष्टि से बन्ध का कारण प्राश्रव है। आश्रव का अर्थ है कर्मवर्गणाओं का आत्मा में आना। आत्मा की विकारी मनोदशा भावाश्रव कहलाती है और कर्म वर्गणाओं के प्रात्मा में आने की प्रक्रिया को द्रव्याश्रव कहा गया है / भावाश्रव कारण है और द्रव्याश्रय कार्य है। द्रव्याश्रव का कारण भावाश्रव है और द्रव्याश्रव से कर्मबन्धन होता है। मानसिक, वाचिक और कायिक प्रवत्तियाँ ही आश्रव हैं। मानसिक वत्ति के साथ शारीरिक और वाचिक क्रियाएं भी चलती हैं। उन क्रियानों के कारण कर्माश्रव भी होता रहता है। जिन व्यक्तियों का अन्तर्मानस कषाय से कलुषित नहीं है, जिन्होंने कषाय को उपशान्त या क्षीण कर दिया है, उनकी क्रिया के द्वारा जो प्राश्रव होता है, वह ईपिथिक आश्रय कहलाता है / चलते समय मार्ग की धूल के कण वस्त्र पर लगते हैं और दूसरे क्षण वे धूलकण विलग हो जाते हैं। वहीं स्थिति कषायरहित क्रियाओं से होती है। प्रथम क्षण में प्राश्रव होता है तो द्वितीय क्षण में वह निर्जीर्ण हो जाता है। भगवतीसूत्र के तृतीय शतक के तृतीय उद्देशक में भगवान महावीर ने अपने छठे गणधर मण्डितपुत्र की जिज्ञासा पर क्रिया के पांच प्रकार बताये और उन क्रियाओं से बचने का सन्देश भगवान महावीर ने दिया। भगवान महावीर ने स्पष्ट कहा कि सक्रिय जीव की मुक्ति नहीं है। मुक्ति प्राप्त करने वाले साधक को निष्क्रिय बनना होगा। जब तक शरीर है तब तक कर्मबन्धन है। अत: सूक्ष्म शरीर से छूट जाना निष्क्रिय बनना है। भगवतीसूत्र शतक सातवें उद्देशक प्रथम में यह स्पष्ट कहा है कि जिन व्यक्तियों में कषाय की प्रधानता है, उनको साम्परायिक क्रिया लगती है और जिनमें कषाय का अभाव है उनको ईपिथिक क्रिया लगती है। एक बार भगवान महावीर गुणशीलक उद्यान में अपने स्थविर शिष्यों के साथ अवस्थित थे। उस उद्यान के सन्निकट ही कुछ अन्य लीथिक रहे हुए थे / उन्होंने उन स्थविरों से कहा कि तुम असंयमी हो, अविरत हो, पापी हो और बाल हो, क्योंकि तुम इधर-उधर परिभ्रमण करते रहते हो, जिससे पृथ्वीकाय के जीवों की विराधना होती है। उन स्थविरों ने उनको समझाते हुए कहा कि हम बिना प्रयोजन इधर-उधर नहीं घूमते हैं और यतनापूर्वक चलने के कारण हिंसा नहीं करते, इसीलिये हमारी हलन-चलन आदि क्रिया कर्मबन्धन का कारण नहीं है। पर आप लोग बिना उपयोग के चलते हैं अतः वह कर्मबन्धन का कारण है और वह असंयम बद्धि का भी कारण है 100 शतक अठारहवें, उद्देशक पाठवें में एक मधुर प्रसंग है—गणधर गौतम ने भगवान महावीर से जिज्ञासा प्रस्तुत की कि एक संयमो श्रमण अच्छी तरह से 33 हाथ जमीन देख कर चल रहा है। उस समय एक क्षद्र प्राणी अचानक पांव के नीचे आ जाता है और उस श्रमण के पैर से मर जाता है। उस . ईर्यापथिक क्रिया लगती है या साम्परायिक क्रिया ? 87. तत्त्वार्थ सूत्र 8/2-3 88. कर्मग्रन्थ बन्धप्रकरण, 1 89. तत्त्वार्थ सूत्र 6/1-2 90. भगवती. शतक 8, उद्देशक 7-8%; शतक 18, उद्देशक 8 [34] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org