________________ डॉ. राइस देबिड्स का अभिमत है कि एक ऐसी लिपि पहले प्रचलित थी जो सेमेटिक अक्षरों के उद्भव के पूर्व ही यूटिस नदी की घाटी में विकसित सभ्यता में प्रचलित थी। उस पुरानी लिपि से ब्राह्मीलिपि का सीधा सम्बन्ध है। वह लिपि सेमेटिक लिपि को भी जन्म देने वाली है। विद्वानों का ऐसा मन्तव्य है कि इस सम्बन्ध में गहराई से चिन्तन की प्रावश्यकता है। एडवर्ड थामस, गोल्ड स्टकर, राजेन्द्रलाल मित्र, लास्सेन, डासन, नियम आदि विज्ञों का मानना है कि बाह्मीलिपि का उद्भवस्थल भारत ही है। पर इनका यह मानना है कि अतीत काल में आर्यभाषी जनता द्वारा किसी चित्रलिपि का प्रयोग किया जाता होगा। सम्भव है उसी से ब्राह्मीलिपि का जन्म हुआ है। बूलर ने इस मन्तव्य का विरोध करते हुए कहा-भारत में चित्रलिपि नहीं थी फिर उससे ब्राह्मी का प्रादुर्भाव कैसे हुआ ? डॉ. सुनीति चटर्जी का मन्तव्य है कि भारत की जो लिपियाँ अभी तक पढ़ी जा सकी हैं, उनमें ब्राह्मीलिपि सबसे प्राचीन है। यही भारतीय आर्यभाषानों से सम्बन्धित प्राचीनतम लिपि है / 2 अधुनातम अन्वेषणा से यह निष्कर्ष प्रकट हो चुका है कि ब्राह्मी भारत की लिपि है। लिपिविद्याविशारद डॉ. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा के शब्दों में ब्राह्मीलिपि अपनी प्रोढ़ अवस्था में और पूर्ण व्यवहार में आती हुई मिलती है और उसका किसी बाहरी स्रोत और प्रभाव से निकलना सिद्ध नहीं होता। इस लिपि के माद्य निर्माता ऋषभदेव रहे हैं। इस कारण भगवती में ब्राह्मीलिपि को नमस्कार कर भगवान् ऋषभदेव को और अक्षरश्रुत को नमस्कार किया गया . है। अक्षरश्रत के रूप में ज्ञान को नमस्कार किया गया है। पञ्च ज्ञानों में श्रुत ज्ञान हो सबसे अधिक व्यवहारयोग्य एवं उपकारक है। इसीलिए 'नमो बंभीए लिवीए' के द्वारा भावभुत को नमस्कार किया गया है। प्रस्तुत आगम में तीसरा नमस्कार 'तमो सुयस्स' के रूप में श्रुत को किया गया है। मतिज्ञान के पश्चात शब्दसंस्पर्शी जो परिपक्व ज्ञान होता है, वह भूतज्ञान है। दूसरे शब्दों में श्रुतज्ञान का अर्थ है-वह ज्ञान जिसका शास्त्र से सम्बन्ध हो। प्राप्तपुरुष द्वारा रचित प्रागम व अन्य शास्त्रों से जो ज्ञान होता है-वह श्रुतज्ञान है / श्रतज्ञान के अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य ये दो भेद हैं। अंगबाह्य के अनेक भेद हैं और अंगप्रविष्ट के 12 भेद हैं।७३ श्रुत वस्तुत: ज्ञानात्मक है। ज्ञानोत्पत्ति के साधन होने के कारण उपचार से शास्त्रों को भी श्रुत कहा गया है। श्रत ही भावतीर्थ है। द्वादशांगी के सहारे ही भव्यजीव संसार-सागर से पार उतरते हैं। इसलिए श्रत को नमस्कार किया गया है। इस नमस्कार से श्रुत की महत्ता प्रदर्शित की गई है। साधकों के अन्तर्मानस में श्रुत के प्रति गहरी निष्ठा उत्पन्न की गई है, जिससे वे श्रुत का सम्मान करें और श्रुत को एकाग्रता से श्रवण करें / गणधर गौतम : एक परिचय भगवतीसूत्र का प्रारम्भ गणधर गौतम की जिज्ञासा से होता है। गौतम जिज्ञासा हैं तो महावीर समाधान हैं। उपनिषतकालीन उद्दालक के समक्ष जो स्थान श्वेतकेतु का है, गीता के उपदिष्टा श्रीकृष्ण के समक्ष जो स्थान अर्जुन का है, तथागत बुद्ध के समक्ष जो स्थान प्रानन्द का है। वही स्थान भगवान् महावीर के समक्ष गणधर गौतम का है। भगवती के प्रारम्भ में सर्वप्रथम बहुत ही संक्षेप में भगवान महावीर के अन्तरंग जीवन का परिचय दिया 72. (क) भारत की भाषाएँ और भाषा सम्बन्धी समस्याएँ, पृ. 170-171 3) विशेष जिज्ञासु, 'मागम और त्रिपिटक एक अनुशीलन' भाग 2 देखें। 73. श्रुतं मतिपूर्व दयनेकदादशभेदम् / तत्त्वार्थसूत्र 1120 [29] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org