________________ और अनुयोगद्वार को जानकर तथा पंचमंगल को नमस्कार कर सूत्र को प्रारम्भ किया जाता है। प्राचार्य जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने पंचनमस्कार महामन्त्र को सर्व सूत्रान्तर्गत माना है। उनके अभिमतानुसार पंचनमस्कार करने के पश्चात ही प्राचार्य अपने मेधावी शिष्यों को सामायिक आदि श्रुत पढ़ाते थे / 3 इस तरह नमस्कार महामन्त्र सर्वसूत्रान्तर्गत है। आवश्यकसूत्र गणधरकृत है तो व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती) भी गणधरकृत ही है / इस दृष्टि से इस महामन्त्र के प्ररूपक तीर्थंकर हैं और सूत्र में प्रावद्ध करने वाले गणधर हैं / जिन आचार्यों ने महामन्त्र को अनादि कहा है, उसका यह अर्थ है--तत्त्व या अर्थ की दृष्टि से वह अनादि है। ब्राह्मोलिपि नमस्कार महामन्त्र के पश्चात् भगवती में 'नमो बभीए लिवीए' पाठ है। भारत में जितनी लिपियाँ हैं, उन सब में ब्राह्मीलिपि सबसे प्राचीन है। वैदिक दृष्टि से ब्राह्मी शब्द ब्रह्मा से निष्पन्न है। त्रिदेवों में ब्रह्मा विश्व का स्रष्टा है। उसने सम्पूर्ण विश्व की रचना की। उसो से इस लिपि का प्रादुर्भाव हुा / नारद स्मृति में लिखा है-यदि ब्रह्मा लिखित या लेखनकला अथवा लिपिरूप उत्तम नेत्र का सर्जन नहीं करते तो इस जगत् को शुभ गति नहीं होती / / ___ ललितविस्तर बौद्धपरम्परा का संस्कृत भाषा में लिखित एक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ है। उस ग्रन्थ में 64 लिपियों का उल्लेख है। उनमें कितनी ही लिपियों का आधार देश-विशेष, प्रदेश-विशेष या जाति-विशेष कहा है। उन 64 लिपियों में सर्वप्रथम बाह्मीलिपि का नाम पाता है।६५ उसकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में वहाँ पर चिन्तन नहीं किया गया है। जैन दष्टि से ब्राह्मीलिपि के सर्जक भगवान् ऋषभदेव थे। भगवान ऋषभदेव ने अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को 72 कलाओं की शिक्षा प्रदान की। द्वितीय पुत्र बाहुबली को प्राणीलक्षण का ज्ञान कराया। अपनी पुत्री ब्राह्मी को 18 लिपियों का और द्वितीय पुत्री सुन्दरी को गणित विद्या का परिज्ञान कराया। ब्राह्मी ने उन लिपियों को प्रसारित किया। 18 लिपियों में मुख्य लिपि ब्राह्मी के नाम से विश्रुत है।६६ समवायाङ्ग में ब्राह्मीलिपि के 46 मातृकाक्षर यानी मूल अक्षर बतलाये हैं और 18 प्रकार की लिपियों में प्रथम लिपि का नाम ब्राह्मी लिपि है। प्रज्ञापना६८ में भी 18 लिपियों के नाम मिलते हैं पर समवायाङ्ग से कुछ पृथकता लिए हुए हैं। 61. नंदिमणुओगदारं विहिवदुवघाइयं च नाऊणं / काकण पंचमंगलमारंभो होइ सुत्तस्स // -पावश्यकनियुक्ति, गा. 1026 सो सब्वसुतक्खंधब्भन्तरभूतो जमो ततो तस / आवासयाणुयोगादिगहणगहितोऽणु योगो वि।। -विशेषावश्यकभाष्य, गा. 9 63. आईएँ नमोक्कारो जइ पच्छाऽऽवासयं तम्रो पुवं / तस्स भणिएऽणुओगे जुत्तो आवस्सयस्स तओ।। -विशेषावश्यकभाष्य, गा. 5 64. नाकरिष्यदि ब्रह्मा लिखितं चक्षुरुत्तमम् / तत्रयमस्य लोकस्य नाभविष्यच्छुभा गतिः / / 65. लेह लिवीविहाणं जिमेण बंभीए दाहिणकरेणं / -प्रावश्यकनियुक्ति, गा. 212 66. भारतीय जैनश्रमण संस्कृति अने लेखनकला / -प्रा. पुण्यविजयजी पृ. 5, 67. बंभीए णं लिबीए छायालीसं माउयक्खरा / -समवायाङ्ग सूत्र, 46 65, प्रज्ञापना 1137 69. समवायाङ्ग, समवाय 18 [27] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org