________________ करते हुए लिखा है-'पगयं वयणं पथयणमिह सुयनाणं'........ पश्यणमहवा संघो' अर्थात् प्रकट वचन ही प्रवचन है; दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि संघ प्रवचन है / संघ को प्रवचन कहने का कारण यह है कि संघ का जो ज्ञानोपयोग है--बही प्रबचन है। इसलिए संघ और ज्ञान का अभेद मानकर संघ को प्रवचन कहा है। यहाँ पर वचन के आगे जो 'प्र' उपसर्ग लगा है। वह प्रशस्त और प्रधान इन दो अथों में आया है। प्रशस्त बचन प्रवचन है अथवा प्रधान वचनरूप-श्रुतज्ञान प्रवचन है। श्रुतज्ञान में भी द्वादशांगी प्रधान है इसलिए वह द्वादशांगी प्रवचन है।६ प्रवचन के भी शब्द और अर्थ ये दो रूप हैं। शब्द, सूत्र के नाम से जाना जाता है और उस सूत्र के रचयिता हैं-गणधर / जिस अर्थ के आधार पर गणधरों ने सूत्र की रचना की; उस अर्थ के प्ररूपक हैंतीर्थकर।७ यहाँ पर भी एक प्रश्न समुत्पन्न होता है कि तीर्थंकरों ने अर्थ का उपदेश दिया-क्या वह अर्थ का उपदेश बिना शब्द का था ? बिना शब्द के उपदेश देना सम्भव ही नहीं है, तो शब्दों के रचयिता गणधर क्यों माने जाते हैं ? तीर्थकर क्यों नहीं ? इस प्रश्न का समाधान जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने इस प्रकार किया है-तीर्थंकर भगवान अनुक्रम से. बारह अंगों का यथावत् उपदेशप्रदान नहीं करते किन्तु संक्षेप में सिद्धान्त उपदेश देते हैं / उस संक्षिप्त उपदेश को गणघर अपनी प्रकृष्ट प्रतिभा से बारह अंगों में इस प्रकार संग्रथित करते हैं, जिससे सभी सरलता से समझ सकें। इस प्रकार अर्थ के कर्ता तीर्थकर हैं और सूत्र के कर्ता गणधर हैं। संक्षेप में तीर्थंकरों का उपदेश किस प्रकार होता है इस प्रश्न पर विचार करते हुए लिखा है--'उप्पन्ने इ वा, विगमे इवा, धुवे इ वा / इस मातृकापदत्रय का ही उपदेश तीर्थंकर प्रदान करते हैं और उसी का विस्तार गणधर द्वादशांगी के रूप में करते हैं। सूत्र, ग्रन्थ, सिद्धान्त, प्रवचन, प्राज्ञा, वचन, उपदेश, प्रज्ञापन, पागम, 16 प्राप्तवचन, ऐतिह्म, आम्नाय, जिनवचन 20 और श्रुत, ये सभी आगम के ही पर्यायवाची शब्द हैं। अतीत काल में 'श्रत' शब्द का प्रयोग आगम के अर्थ में अधिक होता था 3" / 'श्रुतकेवली', 'श्रुतस्थविर' 23 शब्द का प्रयोग प्रागमों में अनेक स्थलों पर निहारा जा सकता है पर कहीं पर भी 'प्रागमकेवली' या 'मागमस्थविर' शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है। अंग प्रागमों का मौलिक चिन्तन : परमाणु विज्ञान प्राममों का मौलिक विभाग अंग है / उसमें जहाँ पर धर्म और दर्शन की गम्भीर चर्चाएं हैं, आत्मा और परमात्मा के सम्बन्ध में गहरा विवेचन है, वहाँ अणु के सम्बन्ध में भी तलस्पर्शी वर्णन है। आज के वैज्ञानिक अणु के सम्बन्ध में अन्वेषण करने में जुटे हुए हैं, किन्तु अणु के सम्बन्ध में जिस सूक्ष्मता से चिन्तन श्रमण भगवान महावीर ने किया है, उतनी सूक्ष्मता से माधुनिक वैज्ञानिक नहीं कर सके हैं। आज का वैज्ञानिक जिसे अणु कहता है; 15. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1192 16. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1068; 1367 17. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1119-1124 / 18. देखिए विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 1122 की टीका। 19. (क) सुय-सुत्त-गन्थ-सिद्धत-पवयणे प्राण-वयण-उवएसे / पण्णवण-प्रागमे या एगट्टा पज्जबा सुते / अनुयोगद्वार 4 (ख) विशेषावश्यकभाष्य, गा. 8 / 97 20. तत्त्वार्थभाष्य, 1-20 21. नन्दीसूत्र, 41 22. स्थानांग सूत्र 150 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org