________________ और आरण्यक साहित्य में महावतों का उल्लेख नहीं है। जिन उपनिषदों पुराणों और स्मृति ग्रन्थों में महावतों का वर्णन आया है उन पर तीर्थकर भगवान पाश्वनाथ और जैनधर्म का प्रभाव है। इस सत्य को महाकवि दिनकर ने स्वीकार करते हुए लिखा है-हिन्दुत्व और जैनधर्म यापस में घुल-मिल कर अब इतने एकाकार हो गए हैं कि आज का साधारण हिन्दु यह जानता भी नहीं कि अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह जैनधर्म के उपदेश थे, हिन्दुत्व के नहीं। अन्य स्वतंत्र चिन्तकों ने भी इस सत्य को बिना संकोच स्वीकार किया है। डॉ. डांडेकर प्रादि का भी यही अभिमत रहा है। वेदों में योग और ध्यान की भी प्रक्रिया नहीं है। ऋग्वेद में योग शब्द मिलता है। वहां पर योग शब्द का अर्थ जोड़ना मात्र है 42 / पर ग्रागे चलकर वही योग शब्द उपनिषदों में पूर्ण रूप से प्राध्यात्मिक अर्थ में आया है।४३ कितने ही उपनिषदों में तो योग और योगसाधना का सविस्तृत वर्णन किया गया है / / 4 योग, योगोचित स्थान, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, कुण्डलिनी यादि का विशद वर्णन है। सिन्धुसंस्कृति के भग्नावशेषों में ध्यानमुद्रा के प्रतीक प्राप्त हुये हैं, जिससे भी इस कथन को बल प्राप्त होता है। संक्षेप में यही सार है कि जैन आगामों का मुल स्रोत वेद नहीं हैं। वेदों से उसने सामग्री ग्रहण नहीं की है। उसकी सामग्री का मूल स्रोत तीर्थकर हैं / केवल-ज्ञान, केवल-दर्शन समुत्पन्न होने पर सभी जीवों के रक्षा रूप दया के लिए तीर्थंकर पावन प्रवचन करते हैं और वह प्रवचन ही प्रागम है। इस प्रवचन का स्रोत केवल-ज्ञान, केवल-दर्शन है। इस तरह अंग आगम धमणसंस्कृति के प्रतिनिधि तथा प्राधारभत ग्रन्थ है। ध्याख्याप्रज्ञप्ति द्वादशांगी में व्याख्याप्राप्ति का पांचवां स्थान है / यह आगम प्रश्नोत्तर शैली में लिखा हुग्रा है, इसलिए इसका नाम न्याख्याप्रज्ञप्ति है। समवायाङ्क ५और नन्दी में लिखा है कि व्याख्याप्रज्ञप्ति में 36000 प्रश्नों का --. .-- .-- - .. - - -.-- 41. संस्कृति के चार प्रध्याय,पू. 125 42. (क) स घा नो योग पा भवत् / - ऋग्वेद, 1 / 5 / 3 (ख) स धीनां योगमिन्वति। -ऋग्वेद, 1 / 18 / 7 (ग) कदा योगी वाजिनो रासभस्य / - ऋग्वेद 1 1 34 / 9 (घ) वाजयन्निव न रथान् योगा अग्ने रुपस्तुहि। -ऋग्वेद 2 / 8 / 1 43. (क) अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं मत्वा धीरो हर्ष-शोको जहाति / --कठोपनिषद् 1 / 2 / 12 (ख) तां योगमितिमन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम / अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययौ // -कठोपनिषद् 2 / 3 / 11 (ग) तैत्तिरीयोपनिषद् 2 / 14 44. योगराजोपनिषद् अद्वयतारकोपनिषद्, अमृतनादोपनिषद्, त्रिशिख बाहाणोपनिषद्, दर्शनोपनिषद्, ध्यान बिन्दू पनिषद्, हंस, ब्रह्मविद्या, शाण्डिल्य, वाराह, योगणित, योगतत्त्व, योगचूडामणि, महावाक्य, योगकुण्डली, मण्डलब्राह्मण, पाशुपत ब्राह्मण, नादबिन्दु, तेजोविन्दु, अमृतबिन्दु, मुक्तिकोपनिषद् / इन सभी 21 उपनिषदों में योग का वर्णन हुअा है / 45. समवायाङ्ग, सूत्र 93 46. नन्दीसूत्र 65 [19] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org