________________ शतक अक्षर-परिणाम शतक अक्षर-परिणाम उद्देशक (21)231 35 . उद्देशक (12)130 (12)132 (12) 132 (12) 132 (12) 132 731 41 . للی سه للا 138 1923 لله मंगल वर्तमान में द्वादशांगी के ग्यारह अंग उपलब्ध हैं। बारहवां अंग दृष्टिबाद इस समय विछिन्न हो चुका है। ग्यारह अंगों में से केवल भगवतीसूत्र के प्रारम्भ में ही मंगलवाक्य है। अन्य किसी भी अंग सुत्र में मंगलवाक्य नहीं है। सहज हो जिज्ञासा हो सकती है कि भगवती में ही मंगलवाक्य क्यों है ? इस जिज्ञासा का समाधान दो दृष्टियों से किया जाता है-एक तर्क की दृष्टि से, दुसरा श्रद्धा की दृष्टि से / ताकिक चिन्तकों का अभिमत है कि ग्रागमयुग में मंगलवाक्य की परम्परा नहीं थी। मंगल, अभिधेय, सम्बन्ध और प्रयोजन' ये चारों अनुबन्ध दार्शनिक युग की देन हैं। आगमकार अपने अभिधेय के साथ ही आगम का प्रारम्भ करते हैं, क्योंकि आगम स्वयं ही मंगल हैं / इसलिए उनमें मंगलवाक्य की आवश्यकता नहीं। दिगम्बर परम्परा के प्राचार्य वीरसेन और जिनसेन ने लिखा है कि पागम में मंगलवाक्य का नियम नहीं है, क्योंकि परमागम में चित्त को केन्द्रित करने से नियमत: मंगल का फल उपलब्ध हो जाता है / 56 अत: भगवती में जो मंगलवाक्य प्राये हैं वे प्रक्षिप्त होने चाहिए। जब यह धारणा चिन्तकों के मस्तिष्क में रूढ हो गई--ग्रन्थ के आदि, मध्य और अन्त में मंगलवाक्य होना चाहिये, तभी से मंगलवाक्य लिखे गये / 57 श्रद्धा की दृष्टि से जब भगवती की रचना हुई तभी से मंगलवाक्य है। मंगल बहुत ही प्रिय शब्द है। अनन्तकाल से प्राणी मंगल की अन्वेषणा कर रहा है / मंगल के लिए गगनचम्बी पर्वतों की यात्राएं कीं; विराटकाय समुद्र को लांघा; बीहड जंगलों को रोंद डाला; रक्त की नदियाँ बहाईं; अपार कष्ट सहन किए; पर मंगल नहीं मिला / कुछ समय के लिए किसी को मंगल समझ भी लिया गया, पर वस्तुतः वह मंगल सिद्ध नहीं हुआ / मंगल शब्द पर चिन्तन करते हुए आचार्य हरिभद्र ने लिखा---जिसमें हित की प्राप्ति हो, वह मंगल है अथवा जो मत्पदवाच्य पात्मा को संसार से अलग करता है वह मंगल है।५८ प्राचार्य मलधारी हेमचन्द का अभिमत है--- जिससे प्रात्मा शोभायमान हो, वह मंगल है या जिससे ग्रानन्द और हर्ष प्राप्त होता है, वह मंगल है। यों भी कह 56. एत्थ पुण णियमो णस्थि, परमागमुवजोगम्मिणियमेण मंगलफलोवलंभादो। -- करायपाहुड, भाग 1, मा.१, पृ.९ 57. तं मंगलमाइए माझे पज्जंतए य सत्थस्स / पढमं सत्थस्साविग्घपारगमणाए निहिठं / / तरसेवाविम्वत्थं मज्झिमयं अंतिमं च तस्मेव / अव्वोच्छित्तिनिमित्तं सिस्सपसिस्साइव सस्स || ....विशेषावश्यक भाष्य, गाथा 13-14 58, 'मङ्गयतेऽधिगम्यते हितमनेनेति मंगलम'........'मां, गालयति भवादिति मङ्गलं-संसारादपनयति / ' -दशवकालिकटीका [22] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org