________________ सूत्रशैली की मुख्य विशेषता यह है कि उसमें कम शब्दों में ऐसी बात कही जाती है जो व्यापक और विराट् अर्थ को लिए हुए हो। इस प्रकार की जो विशिष्ट शब्द रचना है, वह सूत्र कहलाती है / यहाँ पर यह सहज ही जिज्ञासा हो सकती है कि सूत्र को जो परिभाषा को गई है--जो सूचना दे या संक्षेप में व्यापक अर्थ को बताये वह सूत्र है, तो इस परिभाषा के अनुसार जैन आगमों को सूत्र की संज्ञा देना कहाँ तक उपयुक्त है ? वैदिक परम्परा के गृह्यसूत्र और धर्म सूत्र जो बहुत ही संक्षेप में लिखे हुए हैं, वैसे जैन आगम नहीं लिखे गये हैं। समाधान है—बैदिक परम्परा में बैदिक प्राचार के सम्बन्ध में जो नाना प्रकार के उपदेश है, उन उपदेशों का गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र में संग्रह किया गया है। बिखरे हुए आचार-चिन्तन को सूत्रबद्ध कर सुरक्षित किया गया है, वैसे ही जैन धर्म और दर्शन के आचार और विचार के विभिन्न पहलुओं को ग्रन्थों में आबद्ध कर सुरक्षित करने के कारण ये पागम, सूत्र कहे गये / आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यकनियुक्ति में कहा है-तीर्थंकर अर्थ उपदेश देते है और गणधर उसे सूत्रबद्ध करते हैं / द्वादशांगी में दूसरे अग का नाम सूत्रकृतांग है और बौद्ध त्रिपिटकों में द्वितीय पिटक का नाम सूत्तपिटक है। इन दोनों ग्रन्थों में मुत्र शब्द का प्रयोग हमा है, सूत्र शैली में नहीं हैं तथापि इन दोनों ग्रन्थों में जो सूत्र शब्द पाया है, वह सूत्रमनुसरन् रजः अष्टप्रकारं कर्म अपनयति ततः स रणात् सूत्रम् (बृहत्कल्प टीका पृ. 75) जिसके अनुसरण से कर्मों का सरण अपनयन होता है वह सूत्र है / इस अर्थ में है। जैन प्रागमों में विविध प्रकार के अर्थों का बोध कराने की शक्ति रही हुई है, इसलिए भी जन प्राममों को सूत्र कहा गया है / आगम का पर्यायवाची : प्रवचन आगम का एक पर्यायवाची शब्द 'प्रवचन' भी है। सामान्य व्यक्ति की वाणी वचन है और विशिष्ट महापुरुषों के वचन प्रवचन हैं। आगम साहित्य में प्रशस्त और प्रधान श्रुतज्ञान को प्रवचन की संज्ञा ही गई है। प्रागमों में अनेक स्थलों पर निर्गन्ध प्रवचन शब्द का प्रयोग हुआ है। भगवती में साधकों के जीवन का चित्रण करते हुए कहा है 'जिग्गंथे पावयणे अछे, अयं परमठे, सेसे अणटठे...."निग्गंथे पावयणे निस्संकिया' अर्थात निग्नन्थ प्रवचन अर्थ वाला है, परमार्थ वाला है, शेष अनर्थकारी हैं""निग्रंथप्रवचन में निःशंकित हो . अर्थात् उसकी सम्पूर्ण आस्था निग्रंथ प्रवचन में ही केन्द्रित हो। गणधर गौतम ने एक बार जिज्ञासा प्रस्तुत की-"भगवन् ! प्रवचन, प्रवचन कहलाता है या प्रवचनी, प्रवचन कहलाता है।" समाधान करते हुए भगवान महावीर ने कहा-"अरिहन्त प्रवचनी है और द्वादश अंग प्रवचन है।"3 प्राचार्य भद्रबाह ने प्रावश्यकनियुक्ति में लिखा है-तप-नियम-ज्ञान रूप वृक्ष पर पारूढ़ होकर अनन्तज्ञानी केवली भगवान भज्यात्माओं के विबोध के लिए ज्ञानकुसूमों की वष्टि करते हैं। गणधर अपने बुद्धिपट पर उन कुसुमों को झेलकर प्रवचनमाला गूंथते हैं। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने नियुक्ति में आए हुए प्रवचन शब्द का अर्थ 11. 'अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गन्थन्ति गणहरा निउणं' / ---श्राव. नियुक्ति गा० 192 12. भगवती, 2 / 5 / / 13. भगवती, शतक 20, उद्देशक 8 / 14. तब नियमणाणरुक्खं आरूढो केवली अमियनाणी / तो मुयइ नाटिठ भवियजणविबोहणठाए / तं नुद्धिमएण पडेण गणहरा गिव्हिडं निरबसेसं / तित्थयरभासियाई गंथंति तो पवयणट्ठा / / -आवश्यकनियुक्ति गा. 89-90 [14] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org