________________ प्रस्तावना भगवतीसूत्र : एक समीक्षात्मक अध्ययन धर्म और संस्कृति का जो विराट वृक्ष लहलहाता गगोचर हो रहा है, जिसकी जीवनदायिनी छाया और अमृतोपम फलों से जनजीवन अनुप्राणित हो रहा है, उसका मूल क्या है ? उसका मूल है उन तत्त्वद्रष्टा ऋषि-मुनियों का स्वानुभव, चिन्तन, वाणी और उपदेश / वस्तुतः उन तत्त्वद्रष्टा सत्य के साक्षात्का ऋषि-महषि, अरिहन्त, तीर्थंकर, बुद्ध और अवतारों द्वारा लोककल्याण हेतु व्यक्त कल्याणी वाणी ही इस संस्कृति रूपी महावक्ष का सिंचन संवर्धन करती पाई है। उन महापुरुषों की वह वाणी ही उस-उस परम्परा के अाधारभूत मूल ग्रन्थों के रूप में प्रतिष्ठित हुई है, जैसे वैदिक ऋषियों की वाणी वेद, बुद्ध की वाणी त्रिपिटक और तीर्थंकरों की वाणी आगम रूप में विश्रुत हुई। महात्मा ईसा के उपदेश बाइबिल के रूप में प्राज विद्यमान हैं तो मुहम्मद साहब की वाणी कुरान के रूप में समाहत है। जरथुस्त के उपदेश अवेस्ता में प्रतिष्ठित हैं तो नानकदेव की वाणी गुरुनन्थ साहब के रूप में। निष्कर्ष यह है कि प्रत्येक धर्म-परम्परा एवं संस्कृति का मूलाधार उसके श्रद्धेय ऋषि-महषियों की वाणी ही है। तीर्थकर, श्रमणसंस्कृति के परम श्रद्धेय, सत्य के साक्षात् द्रष्टा महापुरुष हैं। उनकी वाणी 'आगम' गणिपिटक के रूप में जैन धर्म एवं संस्कृति का मूल आधार है। इन्हीं प्रागमवचनों के दिव्य प्रकाश में युग-मुग से मानव अपने जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील रहा है। प्रागमवाणी साधकों के लिए प्रकाशस्तम्भ की भांति सदा-सर्वदा मार्गदर्शक रही है। आगम-परिभाषा प्रामम शब्द का प्रयोग जैन परम्परा के आदरणीय ग्रन्थों के लिए हुमा है। प्रागम शब्द का अर्थ ज्ञान है / आचारोग में 'आगमेत्ता आणवेज्जा'१. वाक्य का प्रयोग है, जिसका संस्कृत रूपान्तर है 'झारथा आझाययेत'-- जान कर के आज्ञा करे। 'लाघवं आगममाणे'३ का संस्कृत रूपान्तर है 'लाघवम आगमयन-अवबुध्यमान:' लघता को जानता हुग्रा। व्यवहारभाष्य में प्रागम-व्यवहार पर चितन करते हुए आगम के प्रत्यक्ष और परोक्ष, ये दो भेद किए हैं। प्रत्यक्ष में केवलज्ञान, मन:पर्यवज्ञान, प्रवधिज्ञान और इन्द्रियप्रत्यक्षज्ञान को लिया गया है तथा परोक्ष ज्ञान में चतुर्दश पूर्व और उससे न्यून श्रुतज्ञान को लिया है। इससे यह स्पष्ट है कि प्रागम साक्षात् ज्ञान (प्रत्यक्ष 1. आचारांग 1 / 14 2. आचारांग 1 / 6 / 3 / 3. व्यवहारभाष्य, माथा 2011 [12] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org