________________ उन्नीसवां शतक : उद्देशक 8] 7i95 45. एवं जाव वेमाणियाणं / ' सेवं भंते ! सेवं भंते ! तिः / ॥एगूणवीसइमे सए : अटुमो उद्देसनो समत्तो // 19-8 // [45] इस प्रकार उपयोग-निर्वृत्ति (का कथन) यावत् वैमानिक-पर्यन्त (करना चाहिए।) _ 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है', यों कहकर गौतमस्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-कर्म, शरीर आदि 18 बोलों को निर्वृत्ति के भेद तथा चौबीस दण्डकों में पाई जाने वाली उस-उस निर्वत्ति को यथायोग्य प्ररूपणा प्रस्तुत 41 सूत्रों (सू. 5 से 45 तक) में निवृत्ति के कुल 16 बोलों (द्वारों) में से प्रथम बोल-जीवनिर्वत्ति को छोड़ कर शेष निम्नोक्त 18 बोलों की निर्वृत्ति के भेद तथा चौबीस दण्डकों में पाई जाने वाली उस-उस निवृत्ति का संक्षेप में कथन किया गया है। 2. कर्मनिवत्ति—जीव के राग-द्वषादिरूप अशुभभावों से जो कार्मण वर्गणाएँ ज्ञानावरणीयादि रूप परिणाम को प्राप्त होती हैं, उसका नाम कर्मनिवत्ति है। यह कर्मसम्पाचनरूप है और पाठ प्रकार की है; जो चौबीस दण्डकों में होती है। 3. शरीरनिवत्ति-विभिन्न शरीरों की निष्पत्ति शरीरनिवृत्ति है। नारकों और देवों के वैक्रिय, तैजस और कार्मण शरीरों की तथा मनुष्यों और तिर्यञ्चों के (जन्मतः) औदारिक, तेजस और कार्मण शरीरों की निवृत्ति होती है। 4. सर्वेन्द्रियनिर्वत्ति--समस्त इन्द्रियों की प्राकार के रूप में रचना सर्वेन्द्रिय-निर्वृत्ति है। यह पांच प्रकार की है, जो एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय जीवों में होती है / 5. भाषानिर्वृत्ति एकेन्द्रिय जीव के भाषा नहीं होती, उसके सिवाय जिस जीव के 4 प्रकार की भाषाओं में जो भाषा होती है, उस जीव के उस भाषा की निवृत्ति कहनी चाहिए। 6. मनोनिर्वति–एकेन्द्रिय और विकलेन्द्रिय जीवों के सिवाय शेष वैमानिकपर्यन्त समस्त संज्ञी पंचेन्द्रिय (समनस्क) जीवों के 4 प्रकार की मनोनित्ति होती है / 1. अधिक पाठ-उद्देशक की परिसमाप्ति पर अन्य प्रतियों में निम्नोक्त दो द्वार-संग्रहणीगाथाएँ मिलती हैं जीवाणं निव्वती कम्मप्पगडी-परीर-निम्बत्ती। सविदिय-निव्वत्तो भासा य मणे कसाया य॥१॥ बण्णे गंधे रसे फासे संठाणविही य होइ बोद्धब्बो। लेसा दिली पाणे उवओगे चेव जोगे य॥२॥ अर्थ-१. जीव, 2. कर्मप्रकृति, 3. शरीर, 4. सर्वेन्द्रिय, 5. भाषा, 6. मन, 7. कषाय, 8, वर्ण, 9. गन्ध 11. रस, 11. स्पर्श, 12. संस्थान, 13. संज्ञा, 14. रेश्या, 15. दष्टि, 16. ज्ञान, 16. प्रज्ञान, 18. योग और 19. उपयोग, इन सबकी निवृत्ति का कथन इस उद्देशक में किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org