________________ 79 [व्याख्याप्रज्ञप्तिसून कालकरण-कालरूप करण, या काल के द्वारा, अथवा किसी काल में करना, या कालअवसरादि का करना कालकरण है। भवकरण-नारकादि रूप भव करना या नारकादि भव से या भव का अथवा भव में करना भवकरण है। भावकरण--भावरूप करण, अथवा किसी भाव में, भाव से या भाव का करना भावकरण है / चौबीस दण्डकों में ये पांचों ही करण पाए जाते हैं।' शरीरादि करणों के भेद और चौबीस दण्डकों में उनकी प्ररूपणा 4. कतिविधे णं भंते ! सरीरकरणे पन्नत्ते ? गोयमा ! पंचविधे सरीरकरणे पन्नत्ते, तं जहा-पोरालियसरीरकरणे जाव कम्मगसरीरकरणे। [4 प्र.] भगवन् ! शरीर-करण कितने प्रकार का कहा गया है ? [4 उ.] गौतम ! शरीरकरण पांच प्रकार का कहा गया है / यथा--औदारिक शरीर-करण यावत् कार्मण-शरीर-करण / 5. एवं जाव वेमाणियाणं, जस्स जति सरीराणि / [5] इसी प्रकार (नरयिकों से लेकर) यावत् वैमानिकों तक जिसके जितने शरीर हों उसके उतने शरीर-करण कहने चाहिए। 6. कतिविधेणं भंते ! इंदियकरणे पन्नत्ते ? गोयमा ! पंचविधे इंदियकरणे पन्नत्ते, तं जहा-सोतिदियकरणे जाव फासिदियकरणे / [6 प्र.] भगवन् ! इन्द्रिय-करण कितने प्रकार का कहा गया है ? [6 उ.] गौतम! इन्द्रिय करण पांच प्रकार का कहा गया है, यथा-श्रोत्रेन्द्रिय-करण यावत् स्पर्शेन्द्रिय-करण। 7. एवं जाव वेमाणियाणं, जस्स जति इंदियाई। [7] इसी प्रकार (नै रयिकों से लेकर) यावत्--वैमानिकों तक जिसके जितनी इन्द्रियां हों उसके उतने इन्द्रिय-करण कहने चाहिए। 8. एवं एएणं कमेणं भासाकरणे चम्विहे / मणकरणे चविहे / कसायकरणे चउदिवहे। समुग्धायक रणे सत्तविधे / सण्णाकरणे चउविहे / लेस्साकरणे छविहे / दिट्टिकरणे तिविधे / वेदकरणे तिविहे पन्नत्ते, तं जहा–इस्थिवेदकरणे पुरिसवेयकरणे नपुसगवेयकरणे / एए सव्वे नेरइयाई दंडगा जाव वेमाणियाणं / जस्त जं अस्थि तं तस्स सव्वं भाणियव्वं / [8] इसी प्रकार क्रम से चार प्रकार का भाषाकरण है। चार प्रकार का मनःकरण है। चार प्रकार का कषायकरण है। सात प्रकार का समूदघात-करण है। चार प्रकार का सज्ञाकरण हे। 1. भगवती. अ. बत्ति, पत्र 773 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org