________________ 778] [घ्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [16 प्र.] भगवन् ! क्या पृथ्वीका यिक जीव कदाचित् महानव, महाक्रिया, महावेदना और महानिर्जरा वाले होते हैं? [16 उ.] हाँ, गौतम ! कदाचित् होते हैं / 20. एवं जाव सिय भंते ! पुढविकाइया अप्पस्सवा अप्पकिरिया अप्पवेयणा अप्पनिज्जरा ? हंता, सिया 16 / [20 प्र.] भगवन् ! क्या इसी प्रकार पृथ्वीकायिक यावत् सोलहवें भंग-अल्पास्रव, अल्पक्रिया, अल्प वेदना और अल्पनिर्जरा वाले-कदाचित् होते हैं ? [20 3.] हाँ, गौतम ! वे कदाचित् यावत् सोलहवें भंग तक होते हैं / 21. एवं जाव मणुस्सा। [21] इसी प्रकार यावत् मनुष्यों तक जानना चाहिए। 22. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति०। ॥एगूणवीसइमे सए : चउत्यो उद्देसमो समत्तो // 19-4 // [22] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिकों के विषय में असुरकुमारों के समान जानना चाहिए। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है; यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-असुरकुमारों से लेकर वैमानिकों तक महालवादि-प्ररूपणा-सूत्र 17 से 22 तक का फलितार्थ यह है कि भवनपति (असुरकुमारादि दश प्रकार के), बाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों में—महास्रव, महाक्रिया, अल्पवेदना और अल्पनिर्जरा--यह चौथा भंग पाया जाता है, शेष 15 भंग नहीं पाए जाते; क्योंकि ये चारों प्रकार के देव विशिष्ट अविरति से युक्त होने से महानव और महाक्रिया वाले होते हैं, तथा इन चारों में असातावेदनीय का उदय प्रायः नहीं होता, इसलिए वेदना अल्प होती है और निर्जरा भी प्रायः अशुभ परिणाम होने से अल्प होती है। एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय और मनुष्य इन सभी दण्डकों में परिणामानुसार कदाचित पूर्वोक्त 16 ही भंग पाये जाते हैं।' खोडेयच्या निषेध करना चाहिए / ॥उन्नीसवां शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त // 1. (क) फलितार्थगाथा-भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 768 (ख) 'बीएण उ नेरइया होंति, चउत्थेण सुरगणा सव्वे / ओरालसरीरा पुण सन्वेहि पाहि भणियव्वा // ' 2. भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा. 6, पृ. 2800 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org