________________ उन्नीसवां शतक : उद्देशक 3] [777 विवेचन---महानवादि चतुष्क के सोलह भंगों में नैरपिक का भंग-प्रस्तुत 16 सूत्रों में महास्रवादि चतुष्क के 16 भंग दिये गए हैं। जीवों के शुभाशुभ परिणामों के अनुसार प्रास्रव, क्रिया, वेदना और निर्जरा, ये चार बातें होती हैं। परिणामों की तीव्रता के कारण ये चारों महान् रूप में और परिणामों की मन्दता के कारण ये चारों अल्प रूप में परिणत होती हैं। किन जीवों में किस की महत्ता और किस की अल्पता पाई जाती है? यह बताने हेतु प्रास्त्रवादि चार के सोलह भंग बनते हैं। सुगमता से समझने के लिए रेखाचित्र दे रहे हैं-('म' से महा और 'न' से अल्प समझना / ) 1 म. म. म. म. 5 म. प्र. म. म. हअ. म. म. म. 13 अ.अ.म. म. 2 म. म. म. प्र. 6 म. अ. म. अ. म. अ. 14 अ. अ. म. अ. 3 म. म.अ. म. म. प्र.अ.म. 11 अ. म.अ. भ. 15 अ.अ. अ. म. 4 म, म. प्र.अ. 8 म. अ. अ.न. 12 अ. म.अ. अ. 16 अ. अ. अ. अ. नैरयिकों में इन सोलह भंगों में से दूसरा भंग ही पाया जाता है; क्योंकि नै रयिकों के कर्मों का बन्ध बहुत होता है, इसलिए वे महानवी हैं / उनके कायिकी आदि बहुत क्रियाएँ होती हैं, इसलिए वे महाक्रिया वाले हैं। उनके असातावेदनीय का तीव्र उदय है, इस कारण वे महावेदना वाले हैं / उनमें अविरति परिणामों के होने से सकामनिर्जरा तो होती नहीं, अकामनिर्जरा होती है, पर वह अत्यल्प होती है। इसलिए वे अल्पनिर्जरा वाले हैं। इस प्रकार नैरयिकों में महास्रव, महाक्रिया, महावेदना और अल्पनिर्जरा, यह द्वितीय भंग ही पाया जाता है।' असुरकुमारों से लेकर वैमानिकों तक में महास्रव आदि चारों पदों को प्ररूपणा 17. सिय भंते ! असुरकुमारा महस्सवा महाकिरिया महायणा महानिज्जरा? णो इण? सम?। एवं चउत्थो भंगो भाणियब्वो / सेसा पण्णरस भंगा खोडेयवा। [17 प्र.] भगवन् ! क्या असु रकुमार महास्रव, महात्रिया, महावेदना और महानिर्जरा वाले होते हैं ? [17 उ.] गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। इस प्रकार यहाँ (पूर्वोक्त सोलह भंगों में से) केवल चतुर्थ भंग कहना चाहिए, शेष पन्द्रह भंगों का निषेध करना चाहिए। 18. एवं जाव थणियकुमारा। [18] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक समझना चाहिए / 19. सिय भंते ! पुढविकाइया महस्सवा महाकिरिया महावेपणा महानिज्जरा? हंता, सिया। 1. (क) भगवतो. प्र. वत्ति, पत्र 767 (ख) भगवती. विवेचन (पं. घेवरचन्दजी) भा. 6, प. 2798-99 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org